10 November 2017

चन्द्रशेखर पर रासुका ? 

क्योंकि चन्द्रशेखर किसी राजनेता का बेटा नहीं है, क्योंकि वह किसी व्यवसायी का बेटा नहीं है क्योंकि वह किसी रसूख़दार के घर पैदा नहीं हुआ है.

इसी साल मई-जून में उत्तरप्रदेश के सहारनपुर ज़िले के शब्बीरपुर में दलितों और ठाकुरों के बीच हिंसक घटनाएं हुई थीं. ठाकुरों ने बाबा साहेब अंबेड़कर के जन्मोत्सव पर दलित समुदाय को अम्बेड़कर मूर्ति स्थापना व झलसा निकालने से रोका था. वहीं इसके बाद फिर अगले ही महीने माहाराणा प्रताप जयंती पर दलितों ने उस बात का हवाला देते हुए कि उन्हें बाबा साहेब के जन्मोत्सव पर कार्यक्रम नहीं करने दिया गया था, तो अब वो भी किसी तरह का जुलूस नहीं निकालने देंगे. 




इसी टकराव की स्थति ने दोनों समुदायों के बीच हिसंक घटनाओं को अंजाम दिया. लगभग एक महीने तक रह-रहकर चली इन हिंसक घटनाओं में दलितों की बस्ती में प्रशासन की मौजूदगी में आग लगा दी गई, इन लोगों पर खुलेआम तलवारों से हमला किया गया तथा महिलाओं के शोषण की घटनाएं भी सामने आई. 

वहीं दलितों पर अत्याचार के विरोध में खड़े हुए भीम आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेखर पर देशद्रोह का केस बना कर जेल में डाला गया. चन्द्रशेखर ने भीम आर्मी की स्थापना 2015 में की थी जिसका मकसद आए दिन दलित समुदाय पर होते आ रहे हिंसक हमलों का प्रतिकार करना था. इस संगठन का दावा है कि ये लोग संविधान के दायरे में रहकर दलितों पर होने वाली हिंसक घटनाओं का प्रतिकार करते आए हैं. 



वही कुछ लोग भीम आर्मी के अस्तित्व पर ही उंगली उठा रहे हैं कि इस तरह के संगठन समाज को बांटने का काम करते हैं परंतु इस प्रकार के तर्क देने वालों को यह नहीं भुलना चाहिए की इसी देश में हिन्दु युवा वाहिनी, हिन्दु सेना, राजपूत करणी सेना, क्षत्रिय सेना जैसे तमाम संगठन हैं. वहीं अगर गौरक्षा के लिए भारतीय गौरक्षक दल हो सकता है, तो अपने लोगों की रक्षा के लिए चन्द्रशेखर भीम आर्मी संगठन बनाता है तो इसमें ग़लत क्या है

चंद्रशेखर को कभी नक्सली कहा जाता है तो कभी प्रदेश की क़ानून व्यवस्था भंग करने के आरोपी के तौर पर रासुका( राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून) लगाया जाता है.परंतु दलित बस्ती में आग लगाने वाले तथा उन लोगों पर जुल्म डहाने वाले दबंग और रसुखदारों को अब तक जे़ल में भी नहीं डाला गया है. शेर सिंह राणा जो सांसद फुलन देवी की हत्या में सजायाफ़्ता है और अभी जमानत पर हैं, उस पर लोगों ने आरोप लगाए हैं कि इस घटना के पीछे शेर सिंह राणा का हाथ है. ऐसे मे यह चिंता का विषय है कि हाशिए के लोगों के लिए क़ानून के हाथ छोटे क्यो पड़ जाते हैं. 

चन्द्रशेखर आज़ाद का भीम आर्मी बनाने के पीछे का तर्क है कि दलितों पर आए दिन हमले होते रहते हैं तथा दलित समाज को नीचा दिखाने का प्रयास हमेशा से होता रहा है. जिसका कारण है, लम्बे अरसे से अपने सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीनें के सवैंधानिक अधिकार को आज तक भी ये लोग आत्मसात नहीं कर पाए हैं. वही आज दलित युवा पढ़-लिख कर आगे बढ़ रहें है तथा वे अपने हक़ों और अधिकारों को प्राप्त करने के लिए रास्ता अख्तियार करना जानते हैं.



चंद्रशेखर के सोशल मीडिया पर एक आह्वान पर हज़ारों युवा दिल्ली के जंतर-मंतर पर एकत्र हो जाते हैं. यह पहला मौका था जब नई पीढी़ के पढ़े-लिखे दलित युवा देश भर से इतनी बड़ी संख्या में एकत्र हुए हों. इन लोगों के लिए सोशल मीडिया वरदान की तरह काम कर रहा है क्योंकि मुख्यधारा के मीडिया में इन लोगों की आवाज़ उठाने वाला कोई दिखाई नहीं पड़ता है. 

1973 की रासुका से जुड़ी एक रिपोर्ट के अनुसार 72 फीसदी लोगों पर लगाया गया रासुका ग़लत साबित हुआ जिसे बाद में हटाना पड़ा इस आंकड़े से समझा जा सकता है कि सत्ताधारी लोग किस तरह से रासुका का प्रयोग उनकों चुनौती देने वालों के खिलाफ करती आईं हैं. ऐसा ही चन्द्रशेखर के मामले में भी दिखाई दे रहा है. चन्द्रशेखर को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उन पर दर्ज सभी मामलों में जमानत दे दी थी परंतु जिस दिन 'आजाद' को आजाद होना था उसी दिन सरकार ने रासुका लगा कर 'आजाद' को फिर से कैद कर दिया. 



अभी कुछ दिन पहले सोशल मीडिया के ज़रिए चन्द्रशेखर की एक तस्वीर सामने आई जिसमें चन्द्रशेखर व्हीलचेयर पर बैठा हुआ दिखाई दिया था इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि चन्द्रशेखर के साथ जेल प्रशासन किस तरह पेश आ रहा है.  क्योंकि चन्द्रशेखर किसी राजनेता का बेटा नहीं है, क्योंकि वह किसी व्यवसायी का बेटा नहीं है क्योंकि वह किसी रसूख़दार के घर पैदा नहीं हुआ शायद यही वजह है कि जो चन्द्रशेखर मुच्छो में तांव देकर अपने पैरो पर जेल गया था वह अब व्हीलचेयर पर दिखाई दे रहा है.  

17 October 2017

ताजमहल पर कर्कश संगीत।


ताजमहल पर कर्कश संगीत।   

"कैसा इतिहास, कहाँ का इतिहास, कौन-सा इतिहास, हम इतिहास बदल देंगें". ये वाक्य कहने वाला इतिहास का कैसा छात्र रहा होगा, आप इस ब्यान से अंदाजा लगा सकते हैं. 











यह ब्यान उतर प्रदेश में मेरठ की सरधना सीट से विधायक संगीत सोम ने दिया है संगीत सोम हमेशा से अपने उट-पटागं ब्यानों के लिए जाने जाते रहे हैं. कभी अपने चुनाव प्रचार में दंगों के समय के भाषण चला कर तो कभी सरेआम आम सभाओं में भड़काऊ भाषण देकर नफ़रत के बीज बोते रहे हैं. इसे हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही समझ लीजिए देश के कुछ नेता अपने ओछे कामों से ही राजनीति में बने रहते हैं. इससे पहले प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी भी, "ताजमहल पर गर्व करने जैसी कोई बात नहीं है", कह कर उनका और उनकी सरकार का ताजमहल के प्रति विद्वेश दिखा चुके हैं.    

चलों इसी बहाने ही सही इन लोगों ने यह तो स्वीकार किया की ताजमहल को शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में बनवाया था. वरना इससे पहले ये लोग ताजमहल के इस अस्तित्व को ही नकार रहे थे जिसके चलते सुब्रमण्यन स्वामी ने तो ताजमहल को लेकर केस भी फाइल किया हुआ है. देश की एक विचारधारा के धडे़ द्वारा ताजमहल को शिवालय़ बताया जाता रहा है तो वहीं सरकार के पर्यटन मंत्री महेश शर्मा ने अपने ब्यान में कहाँ कि यह सब निराधार बातें हैं, ताजमहल, ताजमहल ही है.   

कभी मुग़ल काल में अकबराबाद के नाम से जाना जाने वाला आगरा शहर अकबर, जहांगीर और शाहजाहं के काल में राजधानी भी रहा है. इस शहर को चार चांद लगाने का काम शाहजहां ने ताजमहल बनवा कर किया था. आगरा की पहचान ताजमहल से ही रही है. 'ताज आगरा की आबों हवा में है, ताज से आगरा की हवा में ताजगी है. ताज से आगरा की फिज्जा में मोहब्बत है, ताजमहल आगरा के सिर का ताज है. ताजमहल आगरा ही नहीं भारत को भी विश्वपटल पर पहचान दिलाने वाली ऐतिहासिक इमारत है'. ताज के ये कसीदे मेरे एक मित्र ने पढ़े हैं जो आगरा के ही रहने वाला है. 

ताजमहल जिसको खड़े हुए आज लगभग 350 साल से ज्यादा हो चुके हैं उम्र के लिहाज से बुजुर्ग होते हुए भी यह जवानों से ज्यादा कमाई कर रहा है. टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन सालों में ताजमहल की कमाई लगभग 75 करोड़ रही है जो अपने आप में भारत के पर्यटन स्थलों में सबसे ज्यादा है.  

शाहजहां बहुत बड़े वास्तुकला प्रेमी थे उनके काल में ही सबसे ज्यादा भव्य ईमारतों का निर्माण हुआ था. आगरा के ताजमहल के अलावा आगरा का लाल किला (जहां पर शाहजहां को उन्कें बेटे औरंगजेब ने बंदी बना कर रखा था), व दिल्ली का लाल किला जिसकी प्राचीर से आजादी के बाद से सभी प्रधानमंत्री तिरंगा लहराते आए हैं, ये सब ऐतिहासिक ईमारतों का निर्माण करवाने वाले शाहजाहं ही थे. वहीं दिल्ली के लाल किले में स्थित दिवाने-ए-खास के बारे में तो मशहूर कवि अमिर खुसरों ने यहां तक लिखा है कि "धरती पर अगर कही स्वर्ग है तो यही है, यही है, यही है".  

ताजमहल से जुड़े इतिहास के इस पहलू से भी मुंह नही मोड़ा जा सकता कि ताजमहल को बनाने वाले मजदूरों के हाथ कटवा दिए गए थे जो उस समय का एक बहुत बड़ा अमानवीय कृत्य रहा होगा जिसमें लगभग बीस हजार मजदूरों को अपंग कर दिया गया था. शाहजांह को डर था कहीं कोई दूसरा ताजमहल ना बनवा दे परंतु यह उनकीं सबसे बड़ी गलती रही क्योंकि उस समय कोई आर्थिक रुप से इतना मजबूत नहीं था की ताजमहल बनवा सकता. 

लेकिन हमे नहीं भूलना चाहिए कि वो दौर राजशाही का दौर था जिसमे राजा को जो ठीक लगे वही होता था वो एक तरह से तानाशाही का काल था. कुछ लोग आज उन मजदूरों पर हुए अन्याय को लेकर ताजमहल की रंगत को कम करने का प्रयास कर रहे हैं, हां उन सबके साथ अन्याय हुआ इस बात में कोई दोराय नहीं हो सकती, परंतु आज जो लोकशाही के दौर में हो रहा है, आज देश में लोगों को गाय के नाम पर, जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, स्वतंत्र लेखन के नाम पर मारा जा रहा है, उसका क्या? ऐसे में संगीत सोम का कर्कश संगीत इन लोगों के न्याय के लिए भी आलाप करेगा क्या? शायद कभी नहीं. 

राजनीति में इस तरह की मानसिकता रखने वाले नेताओं का स्कोप बढ़ता जा रहा है जो अपनी ब्यानबाजी से समाज को बांटने, नफरत फैलाने का काम करते है सभी पार्टियों में इस तरह के नेता आपको देखने को मिल जाएंगे परंतु भाजपा इस मामले में ज्यादा आगे निकल चुकी है।

31 March 2017

सरकार की पारदर्शिता पर सवाल.


हाल के दिनों में संसद के दोनों सदनों में चर्चा का विषय रहे वित्त विधेयक (फाइनेन्स बिल) को राज्यसभा में संशोधन के लिए पास कर दिया गया था परंतु सरकार की ओर से लोकसभा के पटल पर इस विधेयक को मानने कि कोई बाध्यता नहीं होती है जिसके तहत सरकार ने इस विधेयक को राज्यसभा द्वारा सुझाए गए संशोधनों को बिना माने ध्वनी मत से पारित करवा लिया.

इस विधेयक में सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करने वाली बात है राजनीतिक पार्टियों को निजी कंपनियों की ओर से मिलनें वाला चंदा. पहले निजी कंपनियों की ओर से राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले इस चंदे की सीमा किसी भी कंपनी के पिछले तीन वर्षो के कुल शुद्ध मुनाफे का 7.5% से ज्यादा नहीं हो सकता था. और साथ ही कंपनी को अपनी पहचान तथा किस राजनीतिक पार्टी को आप यह चंदा देने जा रहे हैं बताना अनिवार्य था. मतलब की कोई भी जानकारी गुप्त रखनें का प्रावधान नहीं था.

परंतु सरकार द्वारा किए गए इस नए संशोधन के तहत किसी भी कंपनी के द्वारा राजनीतिक पार्टी को दिए जाने वाले चंदे की सीमा जो 7.5% थी उसको हटा दिया गया है. मतलब अब कंपनियां चाहे तो कितना मर्जी चंदा राजनीतिक पार्टियों को दे सकती हैं वो भी गुप्त तरीके से क्योकिं अब किस कंपनी ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया है बताने की जरुरत नहीं है. 


ऐसे में सरकार अपने आपको पाक-साफ और पारदर्शी होने का पाखंड़ क्यों करती है, खासकर देश के प्रधान सेवक जो राजनीतिक पार्टियों को पारदर्शिता और ईमानदारी का पाठ पढ़ाते नहीं थकते हैं। वहीं दूसरी ओर सरकार लगातार जनता के पैसो पर कभी आधार कार्ड तो कभी पैन कार्ड के माध्यम से नज़र रख रही है, लोगों से पारदर्शी होने की उम्मीद रखने से पहले बिना वजह के कानून थोपने वाली इस सरकार को खुद की पारदर्शिता दिखानी होगी परंतु ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है. 

21 March 2017

NHP -2017 की चुनौतियां! 

एक विकासशील देश के लिए अपनी जनता को अच्छे स्तर की स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करावना एक बड़ी चुनौती होती है, वहीं भारत जैसा विशालकाय देश जो जनसंख्या के पैमाने पर विश्व में दूसरा दर्जा रखता हो उसके लिए यह काम ओर भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है. आज हमारी जनसंख्या 125 करोड़ के आकड़े को पार कर चुकी है. 

देश के हर नागरिक की स्वास्थ्य संबन्धी जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य सरकारों की बनती हैं. स्वास्थ्य एक ऐसा मसला है जो हर आयु वर्ग से जुड़ा होता है मतलब की हमे देश की कुल जनसंख्या को मद्देनज़र रखते हुए स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की जरूरत होती है. 

इसी बीच सरकार की ओर से NHP( National Health Policy) राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति लागू करने के फैसले से कुछ उम्मीद की किरण दिखाई पड़ती है कि सरकार की नियत देश के स्वास्थ्य स्तर को बढा़ने की है. इसी संदर्भ में सरकार की ओर से संसद में लंबित राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति संबन्धि बिल पारित कर दिया गया है. नीति का मुख्य उद्देश्य सभी उम्र वर्ग के नागरिकों को उच्च स्तरिय स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है.

इससे पहले इस तरह की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 1983 और अंतिम राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2002 में जारी कि गई थी. 2002 की स्वास्थ्य नीति तथा आज की स्वास्थ्य संबन्धी समस्यायों को देखते हुए इस नई नीति को लागू करने का प्रस्ताव संसद में पेश किया गया था जिसको मौजूदा सरकार ने पारित कर दिया है. 

इस नीति के तहत सरकार नें स्वास्थ्य बजट को पहले से 1.5 फिसदी बढा़ने का दावा किया है. इसके तहत 2025 तक औसत आयु सत्तर वर्ष करने तथा शिशु मृत्यु दर घटाने का लक्ष्य रखा गया है. इस तरह के लक्ष्यों की प्राप्ती तब तक संभव नहीं है जब तक स्वास्थ्य विभाग से जुड़े ऊपर से लेकर नीचे तक के तमाम लोग इसको एक लक्ष्य के तौर पर लेकर नहीं चलेंगें.  

काग़जी तौर पर सरकारों की ओर से तमाम सुविधाएं देने की बात कही जाती हैं परंतु ज़मीनी हकीकत तो कुछ ओर ही बया करती है. देश में ग्रांमीण स्तर पर प्राथमिक उपचार के लिए 'प्राथमिक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र' स्थापित किए गए है. 

ये प्राथमिक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र एक निश्चित जनसंख्या वाले गाँवों व कस्बों में बनाए गए है तथा आस-पास के गांव के लोगो को भी इनसे जो़ड़ा गया है. यह जनता के स्वास्थ्य से जुड़ा सरकारी तंत्र का पहला उपचार केन्द्र है जहां पर आधिकारिक तौर पर बामुश्किल एक एम.बी.बी.एस और एक बी.डी.एस डॉ की तैनाती की होती है और साथ में कुल तीन नर्स वो भी पाली के हिसाब से काम देखती हैं. 

वही अगर निजी अस्पतालों की बात करें तो इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही हैं आर्थिक रूप से मजबूत परिवारों के बच्चें मैडिकल की पढ़ाई करने के बाद निजी क्लीनिक खोलनें कि लालसा रखते हैं या फिर विदेशों में जाकर काम करना पसंद करते हैं.

MCI (MEDICAL COUNCIL OF INDIA) के अनुसार 2013 से 2016 के बीच भारत में मैडिकल की पढा़ई करने के बाद लगभग 4701 बच्चों नें विदेश का रुख किया है. ऐसी स्थिति में बहुत कम बच्चें मैडिकल कि पढा़ई करने के बाद सरकारी विभाग में काम करना चाहते हैं.

इसका मुख्य कारण सरकार की ओर से चिकित्सकों को दी जाने वाली सुविधाओं की उपलब्धता का न होना है. ओर-तो-ओर सरकारें चिकित्सकों की सुरक्षा तक का अस्पतालों में प्रबंध नहीं कर पा रही है. हाल ही में अनेकों ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें डॉक्टरो को सरेआम पिटने के मामलें सामने आए हैं. महाराष्ट्र में चिकित्सकों कि सुरक्षा का मामला उच्च न्यायालय तक पहुंच गया है. ऐसे में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि सरकारी अस्पतालों में अपनी सेवाएं देने के लिए नए दौर के चिकित्सक आगे आएगें.

MCI  (MEDICAL COUNCIL OF INDIA) कि रिपोर्ट के अनुसार देश में डॉक्टरो की बड़े स्तर पर कमी है. MCI  की ताजा रिपोर्ट के अनुसार आज देश में पाँच लाख से ज्यादा डॅाक्टरों की कमी है. इन आँकडों को पार करना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 लोगों पर एक डॉ की जरूरत है, लेकिन भारत में यह आँकड़ा 1650 से ज्यादा लोगों पर एक डॉ का है. ऐसे में यह लोगों के स्वास्थ्य की गारंटी से लेकर डॉक्टरों पर बढ़ते काम का दबाव, चिंता का विषय है. 

ऐसा भी नहीं है कि भारत ही मात्र ऐसा देश है जिसमें डॉक्टरों की कमी हो WHO के अंतर्गत आने वाले कुल देशों में से 44 फिसदी देश ऐसे हैं जिनमें डॉक्टरों की कमी की समस्या आम हैं. वहीं दूसरी ओर रुस में यह स्थिति सबसे अच्छी है जहाँ पर  1000 की आबादी पर तीन डॉ हैं. 

भारत में कागजी नीतियां बनाने पर तो बहुत जोर दिया जाता है राजनीतिक पार्टीयां मात्र नीतियों और कानूनों के नाम पर जनता को भाषणों के जरिए फुसला कर चुनावी अखाड़ों में जीत भी जाती हैं परंतु आम जनता फिर उसी अखाड़े में चीत हुई दिखाई देती है.
अत: ऐसे में इन तमाम समस्यायों को देखते हुए सरकार की ओर से लाई गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को ज़मीनी स्तर पर लागू करना सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी. 

19 March 2017

योगी'राज' की ताजपोशी के राजनीतिक मायनें! 


भारतीय जनता पार्टी ने उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में अविश्वसनीय जीत के बाद चौंकाने वाला निर्णय लेते हुए आदित्यनाथ योगी को मुख्यमंत्री बना कर सबको चकित कर दिया. पिछले पूरे एक सप्ताह से योगी का नाम मुख्यमंत्री की रेस में जरुर था परंतु उनको ही विधायक दल का नेता चुन लिया जाएगा इसका अनुमान न के बराबर था. वहीं आदित्यनाथ योगी के साथ दो उपमुख्यमंत्रीयों का चुना जाना सपष्ट रुप से जातिगत राजनीति की बिसात है. केशव प्रसाद मोर्य जो एक पिछड़े समाज का चेहरा है तो दिनेश शर्मा ब्राहामण समाज का मुखौटा हैं. 

वहीं भाजपा की ओर से इस बात का हवाला दिया जा रहा है कि मुख्यमंत्री योगी ने प्रदेश बड़ा होने के नाते दो-दो उपमुख्यमंत्री रखे हैं. ऐसे में आज से पहले मायावती ने शासन चलाया, अखिलेश ने शासन चलाया तो क्या उनकें शासनकाल में उत्तरप्रदेश का आकार छोटा था जो अब भाजपा के आते ही बढ़ गया. 

खैर ये देखने वाली बात होगी की दो-दो उपमुख्यमंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री योगी कैसे तालमेल बिठाएंगे और अपने चुनावी मुद्दों को अमलीजामा कैसे पहनाएंगे जिसमे भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश, गुंडाराज खत्म करना, सुशासन, युवाओं के लिए रोजगार, ये वो तमाम विकास के मुद्दे हैं जिनके सहारे भाजपा नेता उत्तरप्रदेश की जनता के बीच गए थे.
उत्तरप्रदेश के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने 1990 के अयोध्या राम मंदिर आंदोलन से प्रभावित होकर गोरखपुर मठ के महंत अविध्यानाथ के संपर्क में आकर गृह जीवन से त्याग ले लिया था. राम लला का मंदिर तो आज तक नहीं बना लेकिन राम मंदिर आंदोलन से प्रभावित होकर आदित्यनाथ योगी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री जरुर बन गए हैं.
योगी की हिन्दु कट्टरवादी छवी जिसके लिए वो जाने जाते है या मशहूर हैं को यू-टयूब पर उपलब्ध भाषणों से समझा जा सकता है. अपने भड़काऊ भाषणों की वजह से योगी पर कोर्ट में केस की सुनवाई भी चल रही है. जो जानकारी उन्होनें सासंद उम्मीद्वार के रुप में दिए गए अपने हलफनामें में भी स्वीकार है.  

योगी के दूसरे रूप की बात करे तो वह लगातार गोरखपुर से पांच बार सासंद रह चुके हैं. 1998 में पहली बार 26 वर्ष की उम्र में सासंद बनने का रिकोर्ड़ भी योगी के नाम है. 

कुल मिलाकर जो जीता वही सिंकदर वाली कहावत योगी पर चरितार्थ होती हैं.  अब देखना होगा की योगी उत्तरप्रदेश को उत्तमप्रदेश बना पाता हैं या नहीं.

20 January 2017

चुनाव और चुनौतियां.




चुनावों को भारत के लोकतंत्र का त्योहार कहा जाता है जिसको मतदाता अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को मत देकर उत्सव के रूप में मनाते हैं. भारत दुनियां का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। परंतु चुनावों को लेकर हमारा लोकतंत्र इतना मजबूत नहीं है जितनी इससे उम्मीद की जानी चाहिए.

आज भी हमारी संसद व राज्य की विधानसभाओं में अपराधी पृष्टभूमि के अनेक नेता चौकड़ी बिछाए बैठे हैं. ADR(Association For Democratic Reforms) की  रिपोर्ट के अनुसार 2014 की लोकसभा में 543 में से 185 (34 प्रतिशत) सासंदो पर आपराधिक मामलें दर्ज़ हैं. वहीं 112 (21प्रतिशत) सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामलें दर्ज हैं. गंभीर आपराधिक मामलें ग़ैर ज़मानती होने के साथ इसमें कम-से-कम पांच साल या उससे अधिक सजा का प्रावधान है.

आदर्श चुनाव आचार संहिता की नेताओं द्वारा खुल्लेआम धज्जियां उड़ाई जाती हैं, परंतु फिर भी आज तक किसी भी उम्मीदवार की उम्मीदवारी रद्द करने की हिम्मत चुनाव आयोग ने नहीं दिखाई है. वहीं ग़रीब मतदाताओं पर बाहुबलियों द्वारा दबाव डाल कर वोट डलवाने के भी मामले सामने आते रहते हैं.  

अगर आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के मतदाता अपनी मर्जी से वोट नहीं डाल सकते तो दुनियां का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश होने का कोई महत्व नहीं रह जाता. चुनाव आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद बाहुबली लोग अपने बल का दुरूपयोग करने से बाज नहीं आते हैं.

यहां तथाकथित नेता चुनाव प्रचार के नाम पर समाज में ज़हर घोलने का असामाजिक काम करते हैं परंतु चुनाव आयोग मात्र प्राथमिकी दर्ज करवाने तक सीमित रह जाता है. चुनाव आयोग की और से उन पर कोई ठोस कार्रवाई ना होने से ये तथाकथित नेता ध्रुवीकरण करने में कामयाब भी हो जाते हैं.

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में चुनाव सुधारों को देखते हुए जनप्रतिनिधि कानून 1952 के तहत चुनाव प्रचार के दौरान धर्म व जाति के आधार पर वोट मांगने वाले नेताओं के खिलाफ क़ानूनी कार्रवाई करने का आदेश दिया है परंतु इसके बावजूद भी नेता जाति, धर्म के आधार पर राजनीतिक गठजोड़ बनाते नज़र आ रहे हैं. 

वहीं मीडिया की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी रिपोर्टिंग में चुनावों का राजनीतिक विश्लेषण जाति व धर्म के आँकड़ों के आधार पर करने से बचे. 

चुनावों में चुनाव प्रचार खर्च को लेकर भी चुनाव आयोग के सामने अनेक चुनौतियां रहती हैं. हाल ही में चुनाव खर्चों संबन्धी सुझाव पेश किए जिनमें सरकारी खर्च पर चुनाव लड़ानें की बात कही गई परंतु इस सुझाव में भी काफी सारी खामियां निकाली जा चुकीं हैं. 

वहीं एक जागरूक मतदाता का भी यह दायित्व बनता है कि वह जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर वोट ना कर के उम्मीदवार की शिक्षा, विकास कार्य करने की क्षमता, जनता की मूलभूत अवश्यकताओं को पूरा करने का माद्दा रखनें वाले उम्मीदवार का चयन करें. 



18 January 2017

राजनीतिक पार्टियो में पारदर्शीता का अवसर !


देश के प्रधानमंत्री ने राजनीतिक पार्टियों को चंदे के रूप में मिलने वाले काले धन को और पार्टियों से जुड़े भ्रष्टाचार को खत्म करने की अपील कर राजनीतिक पार्टियो से ईमानदारी की बात कही है।

राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे को लेकर चुनान आयोग भी लम्बे असरे से अपनी चिंता जताता रहा हैं क्योकि किसी भी पार्टी को चंदे के रूप में 20 हजार से ज्यादा की राशि ही चैक या कैशलेस के रूप में स्विकार्य है, 20 हजार से कम की राशि को चैक से देने की कोई अनिवार्यता नहीं है इस रास्ते के जरिए ये तमाम पीर्टिया चंदे में आए पैसे को 20 हजार से कम दिखाती थी लेकिन अब 20 हजार की जगह 2 हजार से ज्यादा की राशि को चैक के जरिए दिए जाने की बात कही जा रही हैं। लेकिन यह नया तरीका भी  काले धन को चंदे के रूप में स्विकार कर पार्टियों के लिए एक रास्ता छोड़ रहा है भले ही कम राशि के रूप में हो।


एक ओर जब देश की अर्थव्यवस्था को केश लैस करनें की बात की जा रही है हालांकि देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुचनें में इसे कई दशक लग सकते हैं। तो क्यों न राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले एक ₹ के चंदे की राशि को भी कैश लैस भूगतान के जरिए लिया जाए ?

सबसे पहले भाजपा को इसकी शुरुआत करनी चाहिए क्योंकि भाजपा शासित मोदी की केंद्र सरकार ने ही देश को कैश लैस और वितीय रूप से डिजिटल करने का बीड़ा उठाया है। अगर मोदी साहब ऐसा करने का साहस करते है तो जाहिर है दूसरी पार्टियों पर भी जनता का दबाव होगा, कि वो भी चंदे में मिलने वाली राशि को  कैश में ना लेकर चैक, ऑनलाइन बैंकिग या मोबाईल वॅालेट के जरिए ही स्वीकार करें।

वही दूसरी ओर राजनीतिक पार्टियों को सूचना के अधिकार (RTI) के दायरे में लाने की बात लगातार चलती आ रही है। सूचना आयोग नें 2013 में सभी राजनीतिक पार्टियों को RTI के दायरे में लाने का फैसला किया था। लेकिन किसी भी पार्टी ने इसे लागू नहीं किया। अब यह मामला देश के सर्वोच्च न्याया़लय के अधीन चल रहा है। वहीं मोदी अगर पारदर्शिता की बात करते है तो सर्वोच्च न्याया़लय के फैसले से पहले ही उनको अपनी पार्टी को RTI के दायरे मे लाना चाहिए

लेकिन कहीं मोदी पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों को देखते हुए तो ़इस तरह की ब्यानबाजी नहीं कर रहे हों जिससे वो अपनी पार्टी को साफ-सुथरी होने का प्रमाण-पत्र अपनी रैलियों के दौरान अपने लच्छेदार भाषणों में देते नजर आए।
उनकें के लिए बेहतर होगा की वो अपनी पार्टी को मिलने वाले चंदे को कैशलेस करे और अपनी पार्टी को RTI कानून के दायरे में लेकर आए तब जनता में संदेश जाएगा की प्रधानमंती असल में राजनीतिक पार्टियों में पारदर्शिता  और ईमानदारी चाहते हैं। अगर वो ऐसा करते हैं तो इन पांच राज्यो में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी को परोक्ष रूप से फायदा हो सकता है और साथ ही कम-से-कम इस मामलेृ में तो उनकी  कथनी और करनी में अंतर खत्म हो ही जाएगा
- गौरव कुमार