चुनाव और चुनौतियां.
चुनावों को भारत के लोकतंत्र का त्योहार कहा जाता है जिसको मतदाता अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को मत देकर उत्सव के रूप में मनाते हैं. भारत दुनियां का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। परंतु चुनावों को लेकर हमारा
लोकतंत्र इतना मजबूत नहीं है जितनी इससे उम्मीद की जानी चाहिए.
आज भी हमारी संसद व राज्य की विधानसभाओं में अपराधी
पृष्टभूमि के अनेक नेता चौकड़ी बिछाए बैठे हैं. ADR(Association For Democratic Reforms) की रिपोर्ट के
अनुसार 2014 की लोकसभा में 543 में से 185 (34 प्रतिशत) सासंदो पर आपराधिक मामलें दर्ज़ हैं. वहीं 112 (21प्रतिशत) सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामलें दर्ज हैं. गंभीर आपराधिक मामलें ग़ैर ज़मानती होने के साथ
इसमें कम-से-कम पांच साल या उससे अधिक सजा का प्रावधान है.
आदर्श चुनाव आचार संहिता की नेताओं द्वारा खुल्लेआम
धज्जियां उड़ाई जाती हैं, परंतु फिर भी आज तक किसी भी उम्मीदवार की उम्मीदवारी रद्द करने की हिम्मत
चुनाव आयोग ने नहीं दिखाई है. वहीं ग़रीब मतदाताओं पर बाहुबलियों द्वारा दबाव डाल
कर वोट डलवाने के भी मामले सामने आते रहते हैं.
अगर आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के मतदाता अपनी मर्जी से वोट नहीं डाल सकते तो दुनियां का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश होने का कोई महत्व नहीं रह जाता. चुनाव आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद बाहुबली लोग अपने बल का दुरूपयोग करने से बाज नहीं आते हैं.
अगर आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के मतदाता अपनी मर्जी से वोट नहीं डाल सकते तो दुनियां का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश होने का कोई महत्व नहीं रह जाता. चुनाव आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद बाहुबली लोग अपने बल का दुरूपयोग करने से बाज नहीं आते हैं.
यहां तथाकथित नेता चुनाव प्रचार के नाम पर समाज में ज़हर घोलने का असामाजिक काम करते हैं परंतु चुनाव आयोग मात्र प्राथमिकी दर्ज करवाने तक
सीमित रह जाता है. चुनाव आयोग की और से उन पर कोई ठोस कार्रवाई ना होने से ये
तथाकथित नेता ध्रुवीकरण करने में कामयाब भी हो जाते हैं.
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में चुनाव सुधारों को
देखते हुए जनप्रतिनिधि कानून 1952 के तहत चुनाव प्रचार के दौरान धर्म व जाति के आधार पर वोट मांगने वाले नेताओं
के खिलाफ क़ानूनी कार्रवाई करने का आदेश दिया है परंतु इसके बावजूद भी नेता जाति,
धर्म के आधार पर राजनीतिक
गठजोड़ बनाते नज़र आ रहे हैं.
वहीं मीडिया की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी रिपोर्टिंग में चुनावों का राजनीतिक विश्लेषण जाति व धर्म के आँकड़ों के आधार पर करने से बचे.
वहीं मीडिया की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी रिपोर्टिंग में चुनावों का राजनीतिक विश्लेषण जाति व धर्म के आँकड़ों के आधार पर करने से बचे.
चुनावों में चुनाव प्रचार खर्च को लेकर भी चुनाव आयोग के सामने अनेक चुनौतियां रहती हैं. हाल ही
में चुनाव खर्चों संबन्धी सुझाव पेश किए जिनमें सरकारी खर्च पर चुनाव लड़ानें की
बात कही गई परंतु इस सुझाव में भी काफी सारी खामियां निकाली जा चुकीं हैं.
वहीं एक जागरूक मतदाता का भी यह दायित्व बनता है कि वह जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर वोट ना कर के उम्मीदवार की शिक्षा, विकास कार्य करने की क्षमता, जनता की मूलभूत अवश्यकताओं को पूरा करने का माद्दा रखनें वाले उम्मीदवार का चयन करें.
वहीं एक जागरूक मतदाता का भी यह दायित्व बनता है कि वह जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर वोट ना कर के उम्मीदवार की शिक्षा, विकास कार्य करने की क्षमता, जनता की मूलभूत अवश्यकताओं को पूरा करने का माद्दा रखनें वाले उम्मीदवार का चयन करें.
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