सरकार की पारदर्शिता पर सवाल.
हाल के दिनों में संसद के दोनों सदनों में चर्चा का विषय रहे वित्त विधेयक (फाइनेन्स बिल) को राज्यसभा में संशोधन के लिए पास कर दिया गया था परंतु सरकार की ओर से लोकसभा के पटल पर इस विधेयक को मानने कि कोई बाध्यता नहीं होती है जिसके तहत सरकार ने इस विधेयक को राज्यसभा द्वारा सुझाए गए संशोधनों को बिना माने ध्वनी मत से पारित करवा लिया.
इस विधेयक में सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करने वाली बात है राजनीतिक पार्टियों को निजी कंपनियों की ओर से मिलनें वाला चंदा. पहले निजी कंपनियों की ओर से राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले इस चंदे की सीमा किसी भी कंपनी के पिछले तीन वर्षो के कुल शुद्ध मुनाफे का 7.5% से ज्यादा नहीं हो सकता था. और साथ ही कंपनी को अपनी पहचान तथा किस राजनीतिक पार्टी को आप यह चंदा देने जा रहे हैं बताना अनिवार्य था. मतलब की कोई भी जानकारी गुप्त रखनें का प्रावधान नहीं था.
परंतु सरकार द्वारा किए गए इस नए संशोधन के तहत किसी भी कंपनी के द्वारा राजनीतिक पार्टी को दिए जाने वाले चंदे की सीमा जो 7.5% थी उसको हटा दिया गया है. मतलब अब कंपनियां चाहे तो कितना मर्जी चंदा राजनीतिक पार्टियों को दे सकती हैं वो भी गुप्त तरीके से क्योकिं अब किस कंपनी ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया है बताने की जरुरत नहीं है.
ऐसे में सरकार अपने आपको पाक-साफ और पारदर्शी होने का पाखंड़ क्यों करती है, खासकर देश के प्रधान सेवक जो राजनीतिक पार्टियों को पारदर्शिता और ईमानदारी का पाठ पढ़ाते नहीं थकते हैं। वहीं दूसरी ओर सरकार लगातार जनता के पैसो पर कभी आधार कार्ड तो कभी पैन कार्ड के माध्यम से नज़र रख रही है, लोगों से पारदर्शी होने की उम्मीद रखने से पहले बिना वजह के कानून थोपने वाली इस सरकार को खुद की पारदर्शिता दिखानी होगी परंतु ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है.
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