28 June 2021

भात प्रथा का बदलता स्वरूप!

भात प्रथा का बदलता स्वरूप!

लेखक: शीनू मोठसरा


भात प्रथा भारतीय विवाह संस्कृति में विवाह से पहले होने वाली रस्मों में से एक अहम रस्म है। कहा जाता है पहला भात कृष्ण जी ने सुदामा की बेटी की शादी में भरा था यह प्रथा उस सतयुग से आज के युग तक चली आ रही है। इस प्रथा से जुड़ी एक और कहानी जो प्रसिद्ध है वो है 'नानीबाई रो मायरो' जो कृष्ण जी के अपने भक्त नरसी की नातिन के विवाह में भक्ति पर विश्वास का प्रमाण है।

विवाह समारोह एक बड़ा उत्सव है जो सभी रिश्तेदारों और जान पहचान वाले लोगों का मिल जुलकर खुशियां मनाने का अवसर प्रदान करता है। विवाह से जुड़ी दहेज प्रथा से तो हम सभी वाकिफ हैं लेकिन भात प्रथा को लेकर हो सकता है सबके अलग-अलग विचार हों, किसी प्रथा को लेकर हमारा विचार उसे जिस रूप में हमारे आस पास निभाया जाता है इससे बनता है।

भात एक पुण्य!

बदलते दौर में समाज की सोच में बहुत बदलाव आए हैं। बेटियों को बोझ मानने वाले परिवारों की गिनती कम हो रही है। पिता अपने कृतित्व का पालन करते हुए बेटी का विवाह एक अच्छे परिवार में कर के अपनी जिम्मेदारी से राहत लेता है कि अब उसकी बेटी अपने परिवार में रहकर अपने पति के काम और बच्चों का लालन-पोषण कर खुशी गृहस्त जीवन व्यतीत करे।

बेटी का मायका हर सुख-दुख में उसके साथ खड़े रहने की कोशिश करता है। पिता के बाद भाई अपनी बहन की खुशियों और जरूरतों का ख्याल रखता है, रिश्तों में आन-जान और मेल जोल के प्रयाप्त प्रयास करता है। भाई की एक जिम्मेदारी मानी जाती है वो अपनी बहन का भात भरे, जो उसके बच्चों के विवाह की रस्म में लिया जाता है।

इस रस्म के अनुसार बहन अपने भाई को अपने बच्चों के विवाह का न्योता देने उसके द्वार जाती है। बहन का स्वागत तहेदिल से खुशियों और नाच गानों के साथ किया जाता है। विवाह के दिन भाई, बहन के आमंत्रण पर उसके घर अपने परिवार ,दोस्तों और रिस्तेदारों के साथ जाता है। चौखट पर तिलक से लेकर तोहफे देने तक खुद ही एक समारोह होता है।

भात प्रथा एक पुण्य का काम है, भाई के दिये तोहफों, मिठाई और आशीर्वाद उनके भानजा/भानजी के वैवाहिक जीवन की खुशहाली की कामना करते हैं।


रीति रिवाज अगर अपने असल रूप में निभाये जायें तो वो परिवारों को जोड़ने, प्रेम-प्यार बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं परंतु आप इस बात से वाकिफ होंगे के बदलते दौर के साथ रिवाजों के भी मायने बदले हैं। 


भात बदलता रूप:

बेटियां या बहनें कभी बोझ नहीं होती, ये तो इसी समाज की बदलती हुईं नीतियां हैं जो उन्हे इस कटघरों में खड़ा करती हैं। दहेज देना पिता की मजबूरी बन जाता है। पर भात का पुण्य से मजबूरी का सफर, मजबूरी नहीं असंतुष्टि या लालसा है और इस प्रथा में पुरुषप्रधान समाज के साथ-साथ लड़कियों, औरतों की अहम भूमिका है। 
भात, एक भाई की जिम्मेदारी है पर उसे मजबूरी बनाने में उन बहनों का हाथ है जो इसे एक रस्म न मानकर एक व्यापार की तरह लेती हैं। वो ये तो याद रखती हैं कि उनका घर है, उनके बच्चे हैं तो उनका भाई अपनी जिम्मेदारी निभाए, वास्तव में कहे तो उनको, उनके तोहफे, जेवर और धन दे जितना वो चाहती हैं मगर वो बहन ये भूल जाती हैं कि उस भाई का भी परिवार है बाकी जिम्मेदारियां हैं। 

प्रेम से लालच की ये कहानी बहन भाई के रिश्ते में एक बड़ी दरार है। अनुमान नहीं अनुभव की बात है दहेज प्रथा जहां रिश्ता जोड़ती है, भात प्रथा का ये रूप रिश्ते तोड़ देती है।


मेरा विचार:

हम बेटियां जब अपने पिता पर बोझ नहीं बनना चाहती तो फिर अपने भाई पर क्यों, विवाह के बाद ससुराल हमारा अपना घर है हमारे बच्चे हमारी जिम्मेदारी हैं। लालच को रिश्तों पर हावी मत होने दें यदि अपको लगता है कि आपके पिता की सम्पत्ति पर आपका हक है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन वो हक आप किस तरह जताती हैं बस फर्क इस बात का है। 

जीवन भर आपके पति आपके पति, बच्चों और ससुराल का सम्मान करने वाले उस भाई को पैसों में ना तौले। वो अपनी हैसियत के हिसाब से 11 लाख या 11 रुपये जो भी दे आशीर्वाद के रूप में स्वीकार कर रिश्तों को उम्रभर फलने फूलने का आशीर्वाद दें।

नोट: विचार निजी हैं, किसी को ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है।


09 May 2021

शाह ने राममाधव को लगाया ठिकाने


बीजेपी के नेताओं के लिये बीजेपी में शामिल होने के बजाये RSS के रास्ते बीजेपी में जाना फायदे का सौदा रहा है। अब तक जितने भी नेता, RSS से बीजेपी में आए हैं सभी ने पार्टी में ठीक-ठाक पद-प्रतिष्ठा पाई है।

इस बीच दो ही नेता ऐसे दिखाई देते हैं जिनकी संघ से बीजेपी में आने के बाद भी दाल नहीं गल पाई, पहले थे संजय जोशी जिसको गुजरात में ही मोदी-शाह की जोड़ी ने ठिकाने लगाया, संजय जोशी अब न तो RSS के रहे न ही बीजेपी के।

दूसरा नाम है राममाधव। राममाधव के पिता भी संघ के स्वयंसेवक रहे हैं पिता के चलते माधव बचपन से ही संघ से जुड़े हुए हैं। राम माधव को पूर्व सर कार्यवाह सुरेश जोशी (भैया जी जोशी) का  करीबी माना जाता हैं। सुरेश जोशी की सिफारिश पर ही 2014 में सरकार बनने के तीन महीने के अन्दर ही राममाधव को बीजेपी में शामिल किया गया।

शुरुआत से ही सर कार्यवाह सुरेश जोशी और मोदी के बीच समीकरण ठीक नहीं रहे हैं जिसके चलते सुरेश जोशी ने राम माधव को पार्टी अन्दरखाने मोदी-शाह की जोड़ी पर नजर बनाये रखने के लिए पार्टी महासचिव बनाकर भेजा। अब राममाधव पर कोई भी निर्णय लेने का अधिकार पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के पास था। अमित शाह ने राममाधव को न तो राज्यसभा भेजा और न ही 2019 का लोकसभा चुनाव लड़वाया। कैबिनेट में जगह देना तो दूर माधव को दिल्ली से दूर रखा गया।

राम माधव को जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर की जिम्मेदारी दी गई जिसे माधव ने बखूबी निभाया भी। जम्मू कश्मीर में बीजेपी की पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनवाने में राममाधव की मुख्य भूमिका रही थी। इसके बाद शाह ने राममाधव को जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर की जिम्मेदारियों से भी मुक्त कर दिया। 

मोदी के पहले कार्यकाल की शुरुआत से ही राममाधव मोदी के विदेशी दौरों के प्रबन्धक के तौर पर दिखाई दिए, न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर में हुए कार्यक्रम से लेकर अन्य विदेशी दौरों पर भी साथ दिखाई दिये। अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ के चलते माधव की अन्तरराष्ट्रीय मीडिया पर भी ठीकठाक पकड़ है। लेकिन माधव के बढ़ते कदम से शाह को परेशानी थी इसके बाद से माधव को विदेशी कार्यक्रमों से भी दूर रखा गया। 

पार्टी महासचिव के पद पर रहते हुए 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान राममाधव ने पार्टी के खिलाफ एक बयान दिया। राममाधव ने अपने बयान में कहा था कि 'बीजेपी बहुमत के आँकड़े से दूर रह सकती है।' अपने इस बयान को लेकर माधव पार्टी के शीर्ष नेताओं की आंखों में चढ़ गए। माधव के बयान का जवाब देते हुए नीतिन गडकरी ने नाराजगी जाहिर की थी। 

इसके बाद 2020 में जेपी नड्डा के पार्टी अध्यक्ष बनने के कुछ महीने बाद राममाधव को बीजेपी महासचिव पद से भी हटा दिया गया। हाल ही में बेंगलूरु में हुई संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में दत्तात्रेय होसबोले को नया सर कार्यवाह बनाया गया है।

संघ में सरसंघचालक के बाद यह नम्बर 2 की कुर्सी है। होसबोले मोदी के करीबी माने जाते हैं ऐसे में भागवत, होसबोले और मोदी तीनों एकमत के हैं। राम माधव के करीबी भैया जी जोशी के सर कार्यवाह पद से हटते ही और मोदी के करीबी होसबोले के नये सर कार्यवाह बनते ही राममाधव को बीजेपी से संघ में वापस बुला लिया गया है। इस गठजोड़ के बीच बीजेपी के अन्दर राममाधव के पैर जमना मुश्किल हो चुका था। इस तरह राममाधव को फिर से संघ में भेजकर मोदी-शाह की जोड़ी ने माधव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के सारे रास्ते बंद कर दिये।

13 August 2020

महिलाओं के अधिकार


पुरुष स्त्री को अपनी सम्पत्ति मानता है और यह नहीं मानता कि उसके ही समान स्त्री की भी भावनाएँ हो सकती हैं। महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने से क्यों रोका गया ताकि उन्हें उनकी मुक्ति से वंचित रखा जा सके और इस बहाने उन्हें दासी बनाया जा सके और साबित किया जा सके कि ये सोचने-विचारने या कोई कार्य करने में सक्षम नहीं है।



जमींदार अपने नौकरों और ऊँची जाति के लोग नीची जाति के लोगों के साथ जिस प्रकार का व्यवहार करते हैं, पुरुष उससे भी बदतर व्यवहार स्त्री के साथ करता है। जमींदार अपने नौकरों के साथ और ऊँची जाति के लोग नीची जाति के साथ भी ऐसा बुरा बर्ताव करते हैं, जब इन्हें उनसे खतरा महसूस होता है। लेकिन, पुरुष महिलाओं के प्रति उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक क्रूर व्यवहार करते हैं।

भारत में महिलाएं हर क्षेत्र में अस्पृश्यों से भी अधिक उत्पीड़न, अपमान और दासता झेलती हैं चूंकि, हम इस बात को समझ नहीं पाते कि स्त्री की पराधीनता सामाजिक विनाश की ओर ले जाती है। इसीलिए, अपनी सोचने-विचारने की सामर्थ्य के चलते जिस समाज को विकास की सीढ़ियाँ चढ़नी चाहिए; वह दिन-ब-दिन पतन की ओर बढ़ता जाता है।

प्रत्येक महिला को एक उपयुक्त पेशा अपनाना चाहिए, ताकि वह भी कमा सके। अगर वह कम-से-कम खुद के लिए आजीविका कमाने में सक्षम हो जाए, तो कोई भी पति उसे दासी नहीं मानेगा। पुरुष के लिए एक महिला की रसिया, उसके घर की नौकरानी, उसके परिवार या वंश को आगे बढ़ाने के लिए प्रजनन का साधन है और उसके सौन्दर्यबोध को सन्तुष्ट करने के लिए एक सुन्दर ढंग से सजी गुड़िया है। पता कीजिए, क्या इनके अलावा उनका उपयोग अन्य कार्यों के लिए भी हुआ है? महिलाओं की दासता केवल पुरुषों के कारण है पुरुषों की यह धारणा कि ईश्वर ने पुरुष को श्रेष्ठ शक्तियों से युक्त और स्त्री को उसकी गुलामी करने के लिए बनाया है और परम्परागत तौर पर स्त्रियों द्वारा इसे सत्य मानकर इसकी स्वीकार्यता-ये ही स्त्री की दासता को बढ़ावा देने वाले कारक तत्त्व हैं।

विवाह से पूर्व लड़का और लड़की की जोड़ी दोनों के रंग-रूप की संगतता, आपसी स्नेह और सही समझ तथा समान शिक्षा के आधार पर नहीं मिलाई जाती, बल्कि यह देखा जाता है कि क्या लड़की आज्ञाकारी होगी और लड़के की इच्छानुसार आचरण करेगी? लगभग उसी तरह से, जैसे गाय-बैल आदि खरीदते समय उन्हें देखा-परखा जाता है।

मंगल सूत्र का निहितार्थ यह है कि जब लड़का इसे लड़की के गले में बाँधता है, तभी से वह उसे अपनी दासी मान लेता है और लड़की भी उसकी दासी बनना स्वीकार कर लेती है। इस प्रकार पति अपनी पत्नी के प्रति चाहे जैसा भी व्यवहार करे; किसी को उसे रोकने-टोकने का अधिकार नहीं है और न ही उसके दुर्व्यवहारों के लिए दंड का प्रावधान है। आज की मध्यमवर्गीय महिलाएं अपनी शिक्षा, धन, व्यवहार-कुशलता सम्बन्धी ज्ञान, सम्मानित रिश्तेदार और एक आरामदायक जीवन जीने के बावजूद बहुत-ही पारम्परिक ढंग से व्यवहार करती हैं, जिससे उनमें देहाती लड़कियों से भी ज्यादा पिछड़ापन झलकता है। यह दुःख की बात है। ऐसी महिलाओं द्वारा जन्मे और उनके संरक्षण में पलने-बढ़ने वाले बच्चों में मानवीय गरिमा का भाव कैसे आएगा?

हमारे समाज की महिलाओं को स्वयं को जन्म से ही दासी मानने की प्रवृत्ति बदलनी चाहिए।

महिलाओं! साहसी बनिए। यदि आप अपने आचार-विचार में बदलाव लाती हैं, तो आपके पति और अन्य पुरुषों को भी बदलने में आसानी होगी। पुरुष आप पर यह आरोप लगाते हैं कि आप पिछड़ी हैं। अपने आप पर यह आरोप मत लगने दीजिए। अपनी स्थिति को यूँ मजबूत बनाइए कि भविष्य में इसकी बजाय कि आपको 'अमुक व्यक्ति की पत्नी के रूप में पहचाना जाए आपके पति को 'अमुक महिला के पति' के तौर पर ललित किया जाए।

पति का लाड़-प्यार पाने वाली महिलाएं, जिनको वाहनों और परिधानों का अत्यधिक मोह होता है; जो स्त्रियोचित सौन्दर्य और फैशन के आकर्षण में फंसी रहती हैं तथा जो धनाढ्य और अभिमानी होती हैं; वे अपनी इसी निष्क्रिय अवस्था में सन्तुष्ट रहेंगी। वे दुनिया में कोई सुधार लाने में सहायक सिद्ध नहीं होंगी। महिलाओं को उपहास की वस्तु समझने तथा पुरुष के मन बहलाने की चीज मानने के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे खुद ही अभद्र ढंग से व्यवहार करती हैं। जो महिलाएं खुद को फैशनेबल और आधुनिक समझती हैं, वे मात्र बढ़िया परिधान तथा आभूषण पहनकर आकर्षक दिखने से ही स्वयं को सभ्य मानती हैं उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि पुरुषों के साथ समान दर्जे का सम्बन्ध ही वास्तविक सभ्य जीवन का आधार है।

'प्राथमिक शिक्षा' शब्द को सर्वप्रथम महिलाओं के लिए प्रयोग लाया जाना चाहिए। क्योंकि, 6-7 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों के लिए तो असल में वे ही प्राथमिक शिक्षक हैं।

हिन्दू-धर्म में ज्ञान की और धन की देवियों को पूजा जाता है। फिर ये देवियाँ महिलाओं को शिक्षा तथा सम्पत्ति का अधिकार प्रदान क्यों नहीं करती? महिलाओं को तर्कसंगत ज्ञान और वैश्विक मामलों से सम्बन्धित पर्याप्त शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें ऐसे साहित्य इतिहास या कहानियाँ से
दूर रखा जाना चाहिए, जो अन्धविश्वास और भय को जन्म देती हैं। महिलाओं
की पराधीनता के कई कारणों में से प्रमुख कारण यह है कि उन्हें सम्पत्ति का अधिकार नहीं है। (हालांकि अब कानून ने महिलाओं को बराबर की सम्पत्ति का अधिकार दे दिया है)

समाज में पुरुषों की प्रधानता ने उन्हें निरंकुश बनाया है। इसका एक प्रमाण यह है कि हमारी भाषाओं में पुरुष की शुचिता' के लिए कोई लक्षण निर्धारित नहीं किया गया है शुचिता के नाम पर पति द्वारा पत्नी के प्रति बरती जाने वाली क्रूरता को, जिसे पत्नी को हिंसा के रूप में भी सहन करना पड़ता है, समाप्त कर देना चाहिए।

अगर किसी महिला को सम्पत्ति का अधिकार और अपनी पसन्द से किसी को चुनने तथा प्रेम करने की स्वतंत्रता नहीं है, तो वह पुरुष की स्वार्थ-सेवा करने वाली एक रबड़ की पुतली से ज्यादा और क्या है? शुचिता' को केवल स्त्रियों पर लागू करने और पुरुष को इससे मुक्त रखने का हठ, पूर्वग्रह युक्त व्यक्तिगत स्वामित्व पर आधारित धारा है। स्त्री पुरुष की सम्पत्ति है; यही विचार पत्नी की वैध स्थिति निर्धारित करता है। यदि हमारा सम्पूर्ण साहित्य न्याय और अनुशासनबद्ध आचरण के निमित्त रचा गया है, तो महिलाओं पर लागू सभी नियम कानून पुरुषों पर भी समान रूप से लागू नहीं होने चाहिए?

संसार में यही दावा किया जाता रहा है कि स्वतंत्रता तथा साहस केवल 'पुरुष' के लक्षण हैं। अतः पुरुष समाज ने यह निश्चय कर लिया कि ये ही गुण 'पुरुष की श्रेष्ठता' को परिभाषित करते हैं । जब तक दुनिया में पुरुष की श्रेष्ठ कायम रहेगी, महिलाओं की पराधीनता जारी रहेगी। निश्चित तौर पर महिलाएँ तब तक स्वतंत्रता हासिल नहीं करेंगी, जब तक कि वे पुरुष-वर्चस्व की रीति को समाप्त नहीं कर देतीं। पुरुष को अपनी यौन-साथी चुनने की छूट और उसे जितनी मर्जी उतनी पत्नियाँ वरण करने की अनुमति स्वच्छंद सम्भोग का कारण बनती है। लोग महिलाओं की स्वास्थ्य-सुरक्षा और पारिवारिक सम्पत्ति के संरक्षण के उद्देश्य से गर्भ निरोध का समर्थन करते हैं। लेकिन, हम इसकी वकालत महिलाओं की मुक्ति के लिए करते हैं। चूंकि, पुरुषों पर ऐसा कोई भार नहीं होता। इसलिए, समाज में उनकी स्थिति इतनी दृढ़ है कि उन्हें यह घोषित करने में कोई आपत्ति नहीं होती कि वे महिलाओं के बिना रह सकते हैं। इसके साथ ही मातृत्व से सम्बन्धित समस्याएँ महिलाओं को दूसरों की सहायता लेने के लिए विवश कर देती हैं। जिससे पुरुष वर्चस्व को बढ़ावा मिलता है। इसलिए, महिलाओं की असली मुक्ति के लिए उन्हें सन्तानोत्पत्ति की कष्टप्राय बाध्यता से पूरी तरह मुक्त कर देना चाहिए।


पति-पत्नी नहीं, एक-दूसरे के साथी बनें

विवाहित दम्पतियों को एक-दूसरे के साथ मैत्री-भाव से व्यवहार करना चाहिए। किसी भी मामले में पुरुष को अपने पति होने का घमंड नहीं होना चाहिए। पत्नी को भी इस सोच के साथ व्यवहार करना चाहिए कि यह अपने पति की दासी या रसोइया नहीं है। विवाहित दम्पती को बच्चे पैदा करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। विवाह के कम-से-कम तीन साल बाद बच्चे पैदा हों, तो अच्छा रहेगा। विवाहितों को अपनी कमाई के अनुसार खर्च करना चाहिए। उन्हें उधार नहीं लेना चाहिए। भले ही आय कम हो; उन्हें किसी भी तरह थोड़ी-सी बचत करनी चाहिए। इसी को मैं जीवन का अनुशासन कहूँगा।

विवाहित लोगों को एक-दूसरे के प्रति सरोकार रखने वाला होना चाहिए। भले ही वे दूसरों के लिए ज्यादा कुछ न कर पाएँ; लेकिन उन्हें दूसरों का अहित करने से बचना चाहिए। कम बच्चे होने से ईमानदारी और आराम से जीवन व्यतीत किया जा सकता है। विवाहित लोगों को अपने जीवन को दुनिया की वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल ढालने के लिए हर तरह से प्रयास करना चाहिए। भविष्य में दुनिया कैसी होगी? इसे भूलकर उन्हें वही करना चाहिए, जो वर्तमान दुनिया में जीने के लिए आवश्यक है।

'पति' और 'पत्नी' जैसे शब्द अनुचित हैं। वे केवल एक-दूसरे के साथी और सहयोगी हैं; गुलाम नहीं। दोनों का दर्जा समान है। जिस देश या समाज में प्रेम को स्वतंत्र रूप से फलने-फूलने का अवसर मिलता है; वही देश ज्ञान, स्नेह, संस्कृति और करुणा से समृद्ध होता है। जहाँ प्रेम बलपूर्वक किया जाता है, वहाँ केवल क्रूरता और दासता बढ़ती है। जीवन

में एक-दूसरे की अपरिहार्यता को समझना एक उदात्त प्रेम की पहचान है। नैतिक आचरण की सीख देने वाली कोई भी किताब या धर्म-ग्रंथ यह नहीं सिखाता कि एक बाल वधू को वैवाहिक बन्धनों में बँधकर तथा पारिवारिक जीवन में उलझकर, पति के संरक्षण की बेड़ियों में कैद रहना चाहिए; जबकि अपनी उम्र के अनुसार वह इसके लिए तैयार नहीं है। नागरिकों और पुलिस, दोनों को अवैध विवाह से सम्बन्धित लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने

का अधिकार होना चाहिए। विवाह को केवल लैंगिक समानता तथा स्त्री-पुरुष के बीच समान व्यवहार के सिद्धान्त पर अनुरोध किया जाना चाहिए। अन्यथा यही बेहतर होगा कि महिला तथाकथित 'पवित्र वैवाहिक जीवन' से बाहर एकल जीवन जिएँ। स्त्री पुरुष की गुलाम बनकर क्यों रहे? विवाह पर किया जाने वाला खर्च लोगों की 10 या 15 दिनों की औसत आय से अधिक नहीं होना चाहिए। एक और बदलाव यह लाया जा सकता है कि विवाहोत्सव को कम दिनों में मनाया जाए।

मैं 'विवाह' या 'शादी' जैसे शब्दों से सहमत नहीं हूँ। मैं इसे केवल जीवन में साहचर्य के लिए एक अनुबन्ध मानता हूँ। इस तरह के अनुबन्ध में मात्र एक वचन; और यदि आवश्यकता हो, तो अनुरोध के पंजीकरण के एक प्रमाण की जरूरत है। अन्य रस्मों-रिवाजों की कहाँ आवश्यकता है? इस लिहाज से मानसिक श्रम, समय, पैसे, उत्साह और ऊर्जा की बर्बादी क्यों? समाज में कुछ लोगों की स्वीकृति पाने और अपनी प्रशंसा सुनने हेतु लोग दो या तीन दिनों के लिए विवाह में अतार्किक ढंग से अत्यधिक खर्च कर देते हैं; जिसके कारण वर-वधू या उनके परिवार लम्बे समय तक कर्ज में डूबे रहते हैं। खर्चीले विवाहों के कारण कुछ परिवार कंगाल हो जाते हैं।

यदि पुरुष और महिला रजिस्ट्रार कार्यालय में हस्ताक्षर करके यह घोषणा कर देते हैं कि वे एक-दूसरे के 'जीवनसाथी बन गए हैं; तो यह पर्याप्त है। मात्र एक हस्ताक्षर के आधार पर किए गए ऐसे विवाह में अधिक गरिमा लाभ और स्वतंत्रता होती है।

हमें विवाह के पारम्परिक रीति-रिवाजों का पालन करने की जरूरत नहीं है। समय और समाज के मिजाज तथा ज्ञान में हो रही वर्तमान वृद्धि के अनुसार ही रीति-रिवाज स्थापित किए जाने चाहिए। यदि हम सदा के लिए किसी विशेष काल के तौर-तरीकों का पालन करते रहें, तो स्पष्टत: हम ज्ञान के मामले में आगे नहीं बढ़े हैं।

आत्माभिमान विवाह परम्परागत रूप से चलती आ रही प्रथाओं पर प्रश्न उठाने और उन्हें चुनौती देने के लिए शुरू किए गए हैं। विवाह से केवल वर-वधू का ही सरोकार नहीं होता। यह राष्ट्र की प्रगति के साथ जुड़ा होता है।

-पेरियार ई वी रामासामी   

26 June 2020

एक गलतफहमी...

आज से 23 साल पहले आंखें खुली और पहली बार दुनिया देखी. दुनिया में कुछ अपने और कुछ पराये जिन्हे हम समाज कहते हैं,जाहिर सी बात है जब तक मुझे इल्म भी नहीं था कि लड़की क्या होती है, सबने कह दिया होगा अरे लड़की हुई है कोई ना अगली बार लड़का होगा. 

लड़की कौन है ये और लड़का इतना क्यों जरूरी है.सवाल तो मन में होता ही है, बचपन से लेकर बड़े होने तक हर चीज लड़के को पहले दी जाती है. उसके खिलौने, उसकी साइकिल, उसकी पढ़ाई सब मानो उसका ही है बस तो फिर हमे गलतफहमी होना लाज़मी है कि काश में भी लड़का होती तो शायद सभी मुझे इतना ही प्यार करते. 

हां बहुत बुरा लगता है जब लड़की की पढ़ाई बंद करवा कर लड़के को कॉन्वेंट स्कूल में भेजा जाता है तो फिर आता है काश मैं लड़का होती. पर कभी समझ नहीं आता जैसे उसमें उन्के जीन्स हैं मुझमें भी,वो उनकी औलाद है मैं भी हूं फिर ये भेदभाव क्यों.इस कशमकश में की यार भगवान मुझे लड़की क्यों बनाया जिंदगी का एक चौथाई हिस्सा निकल जाता है.


असली इम्तिहान अब शुरू होता है जब जिंदगी समझ आने लगती है जब ये पता लगता है कि शुक्र है कि मैं लड़की हूं, लड़का नहीं जब हम भगवान को दिल से शुक्रिया करते हैं कि हर जन्म में मोहे बिटिया ही कीजो...हैरानी हो रही होगी कि मैं ऐसा क्यों कह रही हूं...


आपके सवाल का जवाब

आपके भाई के पैदा होने पर सभी लोग बहुत खुश होते हैं. उसे सभी महंगे खिलौने दिलवाये जाते हैं, कॉन्वेंट की पढ़ाई से लेकर टॉप क्लास तक डॉनेशन दिया जाता है पर क्यों...अभी नहीं समझ आया तो गौर से सोचिए आपकी शादी के लिए मां-बाप लड़का ढूंढ रहे हैं.उन्कों एक लड़का पसंद आया बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती, उसके बाद पता किया जाता है कि उसकी कीमत क्या है मतलब आपके पापा जिन्होने हो सकता है आज तक आपकी बहुत सी मांगे पूरी नहीं की होंगी आपके लिए जीवनसाथी के रूप में लड़का खरीदते हैं क्योंकि अगर उन्होनें अपने बेटे को बेचने के लिए तैयार ना किया होता तो आज उन्कों  किसी और का बेटा खरीदना नहीं पड़ता...तो मुबारक हो आप लड़की हैं आपकी कीमत रुपयों में तय नहीं की जाएगी होप कि आपकों गर्व होगा कि आप लड़की हैं.


मैं खुशकिस्मत हूं क्योकिं मैं लड़की हूं और ना ही मेरे माँ-पापा ने मेरे भाई की कीमत लगाने के लिये पढ़ाया और ना ही कभी ऐसा हुआ की मेरी डिमानड्स ना पूरी हुई हों...मेरे लिये जीवनसाथी खरीदने से ज्यादा उनकों मुझे पढ़ाना जरूरी लगा....शुक्रिया पापा धर्मपाल मोठसरा; माँ मूर्ति मोठसरा


- शीनू मोठसरा

26 March 2020

एक बार फिर जी लो...


मार्च 2020 अभी सब नोर्मल ही था स्कूल जाते बच्चे को एग्जाम की चिंता, SSC और UPSC के सारे एस्पाइरेंट्स अपना बेस्ट देने में लगे थे। घर पर मां को खाने और सफाई की चिंता और पीछे बहुत सालों से पापा की ऑफिस वाली वही जिंदगी। ताजुब की बात ये थी की एक उम्र सी बीत गई थी वक्त को  ठहरे हुये सबकी जिंदगियां इतनी तेजी से चल रही थीं की किसी ने रुकने का सोचा ही नहीं, सबको आगे ही बढ़ना था। एक खबर थी अखबारों में कि दुनियां के एक हिस्से में कुछ हो रहा था पर अभी तक हमारे यहां जिंदगी रफ्तार में ही थी, कुछ लोगों ने मजाक भी बनाया की जो बुरा करते हैं उनके साथ ही होगा हमें कुछ नहीं होगा।

मेरी दादी एक कहानी सुनाती थी कि आज से बहुत साल पहले कभी महामारी आयी थी ऐसे हालात थे उस वक्त की अगर एक का अंतिम संस्कार करके आए तो दूसरी जिंगदी उससे पहले दम तोड़ रही थी। इस कहानी वाले लोगों में मेरे पूर्वजों में से भी तीन बच्चों ने ऐसे ही अपना दम तोड़ा। पर यकीन मानिए हमेशा ऐसा लगता था कि अब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि ऐसा आगे तो शायद कुछ ना हो।तीसरे विश्वयुद्ध का डर तो दिल में था पर सोचा ना था कि वो किसी वायरस के रूप में आएगा जहां वायरस बनाम पूरी दुनिया होगी। 

आप सोचकर देखिये हमारी जिंदगी इतनी रफ्तार से चल रही थी कि ब्रेक लगने पर भी झटका तेजी से लगता पर यहां पर तो रुकना था। कई बार सुना था लॉकडाउन के बारे में कश्मीर के उन लोगों के लिये दुख भी हुआ जो एक लम्बे वक्त तक अपने घरों में कैद रहे पर कभी उनका दर्द महसूस नहीं हुआ क्योकिं कभी कुछ ऐसा जिया ही नहीं। हाँ  एक फ़र्क है उनमें और हममें शायद उन्हें मौत का डर नहीं रहा पर अब हमें है। हम अपने आस-पास पड़ोस के उन लोगों से भी डर रहे हैं जिनके साथ हम जिन्दगी के इतने साल रहे हैं। 

एक ही गुजारिश है मेरी आप सब से की माना  की हम अपनी मर्जी से नहीं ठहरे हैं। पर अब जब हम रुक ही गए हैं तो थोड़ा आराम कर लिजिये, जिन्दगी का कुछ वक्त खुद के लिये निकालिए और जो बीत गया उस पर एक बार झांक कर देखिये की इस रेस में आगे बढ़ते-बढ़ते कहीं हम खुद को ही ना भूल गये हों। 

अगर आपको अपना घर कैद लग रहा है तो एक बार अपने जीवनसाथी की शिकायतें सुनिये और समझने की कोशिश करके देखिये। बुजुर्ग माँ बाप को भी जिन्होनें जिन्दगी दी शुक्रिया कह दीजिये। बहन भाई की जिन शरारतों ने जिन्दगी में रंग भर दिये उन्हे फिर याद कर लिजिये। उन बच्चों के साथ जिनकों समय ना होने के कारण आपने वीडियोगेम या मोबाइल फोन दिये ताकि आपकी कमी शायद वो चीजें पूरी कर दें उनकों वो वक्त दे के देखिये यकीन मानिये कैद कब जन्नत हो जाएगी और वक्त हँसते कब गुजर जाएगा पता ही नहीं लगेगा। अपनी दुनिया उस घर की दिवारों में फिर जन्नत  बनाकर यकीन मानिये आप खुद को भी सुरक्षितरखेंगे अपने परिवार को भी और पूरी दुनिया भी आपकी कर्जदार रहेगी।

शुक्रिया
मुस्कुराते रहिये
शीनू मोठसरा



29 July 2018



कालबेलिया समुदाय   

साँप की कलाकृतियों से सजे चमकदार, चाँदी और शीशे से सजे काले रंग के परिधानों में सपेरों की बीन के लहरें, ढोलक की थाप, डफली और खंजरी जैसे वाद्य यंत्रो से निकली धुन पर लोक नृत्य करती कालबेलिया घुमंतु जनजाति की महिलाएँ सदियों से राजस्थान के कालबेलिया लोक नृत्य को संजोए हुए हैं।









कालबेलिया लोक नृत्य राजस्थान का बहुत चर्चित और प्रसिद्ध लोक नृत्य है। इस लोक नृत्य की प्रस्तुति कालबेलिया नाम की ही जनजाति के लोगों द्वारा की जाती है। इस लोक नृत्य का नाम भी इसी कालबेलिया जनजाति के नाम पर पड़ा है। इस नृत्य की प्रस्तुति ख़ास उत्सवों पर दी जाती है। कालबेलिया नृत्य की धूम भारत ही नहीं पूरे विश्व में मानी जाती है।


2010 में यूनेस्को ने कालबेलिया नृत्य को अमूर्त विरासत सूची में डाल कर इस लोक नृत्य के साथ-साथ कालबेलिया समुदाय को भी विश्व स्तर पर पहचान दी। इस नृत्य को देखने और सीखने के लिए लोग विदेशों से आते हैं।   

ये लोग गौरखनाथ को अपना देवता मानते हैं तथा सर्प पूजा में विश्वास रखते है। कालबेलिया समुदाय के लोगों का मुख्य पेशा साँप पकड़ना, सर्प विष का व्यापार करना, तथा सर्प दंश का उपचार करना रहा है। परंतु 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम आने के बाद से इन लोगों के साँप पकड़ने तथा इससे जुड़े छोटे-मोटे काम भी बंद हो गए।

इन लोगों के पास स्थाई मकान ना होने के कारण ये एक स्थान से दूसरे स्थान घूमते रहते हैँ। निरंतर घूमते रहने की वजह से ही कालबेलियों  का राजस्थान की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं से लगाव हो गया। फिर ये लोग इन वनस्पतियों से जुड़ी हुई तरह-तरह की जड़ी-बुटियां बनाने लगे तथा इन्हे बेचकर ही थोड़ा बहुत कमाते रहे थे परंतु अब वह भी नहीं रहा। 


विडंबना देखिए जिस जनजाति ने राजस्थान के लोक नृत्य को संजोए रखा और विश्वपटल पर ख़्याति दिलाई, उसी जनजाति की, समाज और सत्ताशीनों ने अनदेखी की। कालबेलिया जनजाति के लोगों के साथ आज भी समाज अस्पृश्यता का व्यवहार करता है। ये लोग जिस गाँव में ठरहरने के लिए डेरा डालते है वहाँ के लोग इनकों कुछ ही दिनों के अंदर वहाँ से दूसरी जगह जाने पर मजबूर कर देते हैं।

स्थानीय लोगों की ओर से इन लोगों पर चोरी और झगड़ा करने का आरोप लगाया जाता है जिसके बाद ये लोग उस स्थान को छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। समाज ने कालबेलिया जनजाति को मुख्यधारा से विमुख कर मानो बहती नदी के किनारे छोड़ दिया हो।

आज इस समुदाय के लोग दो जून की रोटी के लिए तंगहाल स्थिति में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ये लोग सड़कों, चौराहों पर अपनी बीन के लहरे से मनोरंजन कर लोगों की कृपाद्रष्टि के पात्र होकर गुजर-बसर कर रहे हैं। 






16 March 2018

जाति के नाम पर गर्व करने लायक क्या ?  


जाति के बखान से लोगों को कौन-से रस की तृप्ति होती है समझ से परे है.