29 July 2018



कालबेलिया समुदाय   

साँप की कलाकृतियों से सजे चमकदार, चाँदी और शीशे से सजे काले रंग के परिधानों में सपेरों की बीन के लहरें, ढोलक की थाप, डफली और खंजरी जैसे वाद्य यंत्रो से निकली धुन पर लोक नृत्य करती कालबेलिया घुमंतु जनजाति की महिलाएँ सदियों से राजस्थान के कालबेलिया लोक नृत्य को संजोए हुए हैं।









कालबेलिया लोक नृत्य राजस्थान का बहुत चर्चित और प्रसिद्ध लोक नृत्य है। इस लोक नृत्य की प्रस्तुति कालबेलिया नाम की ही जनजाति के लोगों द्वारा की जाती है। इस लोक नृत्य का नाम भी इसी कालबेलिया जनजाति के नाम पर पड़ा है। इस नृत्य की प्रस्तुति ख़ास उत्सवों पर दी जाती है। कालबेलिया नृत्य की धूम भारत ही नहीं पूरे विश्व में मानी जाती है।


2010 में यूनेस्को ने कालबेलिया नृत्य को अमूर्त विरासत सूची में डाल कर इस लोक नृत्य के साथ-साथ कालबेलिया समुदाय को भी विश्व स्तर पर पहचान दी। इस नृत्य को देखने और सीखने के लिए लोग विदेशों से आते हैं।   

ये लोग गौरखनाथ को अपना देवता मानते हैं तथा सर्प पूजा में विश्वास रखते है। कालबेलिया समुदाय के लोगों का मुख्य पेशा साँप पकड़ना, सर्प विष का व्यापार करना, तथा सर्प दंश का उपचार करना रहा है। परंतु 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम आने के बाद से इन लोगों के साँप पकड़ने तथा इससे जुड़े छोटे-मोटे काम भी बंद हो गए।

इन लोगों के पास स्थाई मकान ना होने के कारण ये एक स्थान से दूसरे स्थान घूमते रहते हैँ। निरंतर घूमते रहने की वजह से ही कालबेलियों  का राजस्थान की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं से लगाव हो गया। फिर ये लोग इन वनस्पतियों से जुड़ी हुई तरह-तरह की जड़ी-बुटियां बनाने लगे तथा इन्हे बेचकर ही थोड़ा बहुत कमाते रहे थे परंतु अब वह भी नहीं रहा। 


विडंबना देखिए जिस जनजाति ने राजस्थान के लोक नृत्य को संजोए रखा और विश्वपटल पर ख़्याति दिलाई, उसी जनजाति की, समाज और सत्ताशीनों ने अनदेखी की। कालबेलिया जनजाति के लोगों के साथ आज भी समाज अस्पृश्यता का व्यवहार करता है। ये लोग जिस गाँव में ठरहरने के लिए डेरा डालते है वहाँ के लोग इनकों कुछ ही दिनों के अंदर वहाँ से दूसरी जगह जाने पर मजबूर कर देते हैं।

स्थानीय लोगों की ओर से इन लोगों पर चोरी और झगड़ा करने का आरोप लगाया जाता है जिसके बाद ये लोग उस स्थान को छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। समाज ने कालबेलिया जनजाति को मुख्यधारा से विमुख कर मानो बहती नदी के किनारे छोड़ दिया हो।

आज इस समुदाय के लोग दो जून की रोटी के लिए तंगहाल स्थिति में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ये लोग सड़कों, चौराहों पर अपनी बीन के लहरे से मनोरंजन कर लोगों की कृपाद्रष्टि के पात्र होकर गुजर-बसर कर रहे हैं। 






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