पुरुष स्त्री को अपनी सम्पत्ति मानता है और यह नहीं मानता कि उसके ही समान स्त्री की भी भावनाएँ हो सकती हैं। महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने से क्यों रोका गया ताकि उन्हें उनकी मुक्ति से वंचित रखा जा सके और इस बहाने उन्हें दासी बनाया जा सके और साबित किया जा सके कि ये सोचने-विचारने या कोई कार्य करने में सक्षम नहीं है।
जमींदार अपने नौकरों और ऊँची जाति के लोग नीची जाति के लोगों के साथ जिस प्रकार का व्यवहार करते हैं, पुरुष उससे भी बदतर व्यवहार स्त्री के साथ करता है। जमींदार अपने नौकरों के साथ और ऊँची जाति के लोग नीची जाति के साथ भी ऐसा बुरा बर्ताव करते हैं, जब इन्हें उनसे खतरा महसूस होता है। लेकिन, पुरुष महिलाओं के प्रति उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक क्रूर व्यवहार करते हैं।
भारत में महिलाएं हर क्षेत्र में अस्पृश्यों से भी अधिक उत्पीड़न, अपमान और दासता झेलती हैं चूंकि, हम इस बात को समझ नहीं पाते कि स्त्री की पराधीनता सामाजिक विनाश की ओर ले जाती है। इसीलिए, अपनी सोचने-विचारने की सामर्थ्य के चलते जिस समाज को विकास की सीढ़ियाँ चढ़नी चाहिए; वह दिन-ब-दिन पतन की ओर बढ़ता जाता है।
प्रत्येक महिला को एक उपयुक्त पेशा अपनाना चाहिए, ताकि वह भी कमा सके। अगर वह कम-से-कम खुद के लिए आजीविका कमाने में सक्षम हो जाए, तो कोई भी पति उसे दासी नहीं मानेगा। पुरुष के लिए एक महिला की रसिया, उसके घर की नौकरानी, उसके परिवार या वंश को आगे बढ़ाने के लिए प्रजनन का साधन है और उसके सौन्दर्यबोध को सन्तुष्ट करने के लिए एक सुन्दर ढंग से सजी गुड़िया है। पता कीजिए, क्या इनके अलावा उनका उपयोग अन्य कार्यों के लिए भी हुआ है? महिलाओं की दासता केवल पुरुषों के कारण है पुरुषों की यह धारणा कि ईश्वर ने पुरुष को श्रेष्ठ शक्तियों से युक्त और स्त्री को उसकी गुलामी करने के लिए बनाया है और परम्परागत तौर पर स्त्रियों द्वारा इसे सत्य मानकर इसकी स्वीकार्यता-ये ही स्त्री की दासता को बढ़ावा देने वाले कारक तत्त्व हैं।
विवाह से पूर्व लड़का और लड़की की जोड़ी दोनों के रंग-रूप की संगतता, आपसी स्नेह और सही समझ तथा समान शिक्षा के आधार पर नहीं मिलाई जाती, बल्कि यह देखा जाता है कि क्या लड़की आज्ञाकारी होगी और लड़के की इच्छानुसार आचरण करेगी? लगभग उसी तरह से, जैसे गाय-बैल आदि खरीदते समय उन्हें देखा-परखा जाता है।
मंगल सूत्र का निहितार्थ यह है कि जब लड़का इसे लड़की के गले में बाँधता है, तभी से वह उसे अपनी दासी मान लेता है और लड़की भी उसकी दासी बनना स्वीकार कर लेती है। इस प्रकार पति अपनी पत्नी के प्रति चाहे जैसा भी व्यवहार करे; किसी को उसे रोकने-टोकने का अधिकार नहीं है और न ही उसके दुर्व्यवहारों के लिए दंड का प्रावधान है। आज की मध्यमवर्गीय महिलाएं अपनी शिक्षा, धन, व्यवहार-कुशलता सम्बन्धी ज्ञान, सम्मानित रिश्तेदार और एक आरामदायक जीवन जीने के बावजूद बहुत-ही पारम्परिक ढंग से व्यवहार करती हैं, जिससे उनमें देहाती लड़कियों से भी ज्यादा पिछड़ापन झलकता है। यह दुःख की बात है। ऐसी महिलाओं द्वारा जन्मे और उनके संरक्षण में पलने-बढ़ने वाले बच्चों में मानवीय गरिमा का भाव कैसे आएगा?
हमारे समाज की महिलाओं को स्वयं को जन्म से ही दासी मानने की प्रवृत्ति बदलनी चाहिए।
महिलाओं! साहसी बनिए। यदि आप अपने आचार-विचार में बदलाव लाती हैं, तो आपके पति और अन्य पुरुषों को भी बदलने में आसानी होगी। पुरुष आप पर यह आरोप लगाते हैं कि आप पिछड़ी हैं। अपने आप पर यह आरोप मत लगने दीजिए। अपनी स्थिति को यूँ मजबूत बनाइए कि भविष्य में इसकी बजाय कि आपको 'अमुक व्यक्ति की पत्नी के रूप में पहचाना जाए आपके पति को 'अमुक महिला के पति' के तौर पर ललित किया जाए।
पति का लाड़-प्यार पाने वाली महिलाएं, जिनको वाहनों और परिधानों का अत्यधिक मोह होता है; जो स्त्रियोचित सौन्दर्य और फैशन के आकर्षण में फंसी रहती हैं तथा जो धनाढ्य और अभिमानी होती हैं; वे अपनी इसी निष्क्रिय अवस्था में सन्तुष्ट रहेंगी। वे दुनिया में कोई सुधार लाने में सहायक सिद्ध नहीं होंगी। महिलाओं को उपहास की वस्तु समझने तथा पुरुष के मन बहलाने की चीज मानने के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे खुद ही अभद्र ढंग से व्यवहार करती हैं। जो महिलाएं खुद को फैशनेबल और आधुनिक समझती हैं, वे मात्र बढ़िया परिधान तथा आभूषण पहनकर आकर्षक दिखने से ही स्वयं को सभ्य मानती हैं उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि पुरुषों के साथ समान दर्जे का सम्बन्ध ही वास्तविक सभ्य जीवन का आधार है।
'प्राथमिक शिक्षा' शब्द को सर्वप्रथम महिलाओं के लिए प्रयोग लाया जाना चाहिए। क्योंकि, 6-7 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों के लिए तो असल में वे ही प्राथमिक शिक्षक हैं।
हिन्दू-धर्म में ज्ञान की और धन की देवियों को पूजा जाता है। फिर ये देवियाँ महिलाओं को शिक्षा तथा सम्पत्ति का अधिकार प्रदान क्यों नहीं करती? महिलाओं को तर्कसंगत ज्ञान और वैश्विक मामलों से सम्बन्धित पर्याप्त शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें ऐसे साहित्य इतिहास या कहानियाँ से
दूर रखा जाना चाहिए, जो अन्धविश्वास और भय को जन्म देती हैं। महिलाओं
की पराधीनता के कई कारणों में से प्रमुख कारण यह है कि उन्हें सम्पत्ति का अधिकार नहीं है। (हालांकि अब कानून ने महिलाओं को बराबर की सम्पत्ति का अधिकार दे दिया है)
समाज में पुरुषों की प्रधानता ने उन्हें निरंकुश बनाया है। इसका एक प्रमाण यह है कि हमारी भाषाओं में पुरुष की शुचिता' के लिए कोई लक्षण निर्धारित नहीं किया गया है शुचिता के नाम पर पति द्वारा पत्नी के प्रति बरती जाने वाली क्रूरता को, जिसे पत्नी को हिंसा के रूप में भी सहन करना पड़ता है, समाप्त कर देना चाहिए।
प्रत्येक महिला को एक उपयुक्त पेशा अपनाना चाहिए, ताकि वह भी कमा सके। अगर वह कम-से-कम खुद के लिए आजीविका कमाने में सक्षम हो जाए, तो कोई भी पति उसे दासी नहीं मानेगा। पुरुष के लिए एक महिला की रसिया, उसके घर की नौकरानी, उसके परिवार या वंश को आगे बढ़ाने के लिए प्रजनन का साधन है और उसके सौन्दर्यबोध को सन्तुष्ट करने के लिए एक सुन्दर ढंग से सजी गुड़िया है। पता कीजिए, क्या इनके अलावा उनका उपयोग अन्य कार्यों के लिए भी हुआ है? महिलाओं की दासता केवल पुरुषों के कारण है पुरुषों की यह धारणा कि ईश्वर ने पुरुष को श्रेष्ठ शक्तियों से युक्त और स्त्री को उसकी गुलामी करने के लिए बनाया है और परम्परागत तौर पर स्त्रियों द्वारा इसे सत्य मानकर इसकी स्वीकार्यता-ये ही स्त्री की दासता को बढ़ावा देने वाले कारक तत्त्व हैं।
विवाह से पूर्व लड़का और लड़की की जोड़ी दोनों के रंग-रूप की संगतता, आपसी स्नेह और सही समझ तथा समान शिक्षा के आधार पर नहीं मिलाई जाती, बल्कि यह देखा जाता है कि क्या लड़की आज्ञाकारी होगी और लड़के की इच्छानुसार आचरण करेगी? लगभग उसी तरह से, जैसे गाय-बैल आदि खरीदते समय उन्हें देखा-परखा जाता है।
मंगल सूत्र का निहितार्थ यह है कि जब लड़का इसे लड़की के गले में बाँधता है, तभी से वह उसे अपनी दासी मान लेता है और लड़की भी उसकी दासी बनना स्वीकार कर लेती है। इस प्रकार पति अपनी पत्नी के प्रति चाहे जैसा भी व्यवहार करे; किसी को उसे रोकने-टोकने का अधिकार नहीं है और न ही उसके दुर्व्यवहारों के लिए दंड का प्रावधान है। आज की मध्यमवर्गीय महिलाएं अपनी शिक्षा, धन, व्यवहार-कुशलता सम्बन्धी ज्ञान, सम्मानित रिश्तेदार और एक आरामदायक जीवन जीने के बावजूद बहुत-ही पारम्परिक ढंग से व्यवहार करती हैं, जिससे उनमें देहाती लड़कियों से भी ज्यादा पिछड़ापन झलकता है। यह दुःख की बात है। ऐसी महिलाओं द्वारा जन्मे और उनके संरक्षण में पलने-बढ़ने वाले बच्चों में मानवीय गरिमा का भाव कैसे आएगा?
हमारे समाज की महिलाओं को स्वयं को जन्म से ही दासी मानने की प्रवृत्ति बदलनी चाहिए।
महिलाओं! साहसी बनिए। यदि आप अपने आचार-विचार में बदलाव लाती हैं, तो आपके पति और अन्य पुरुषों को भी बदलने में आसानी होगी। पुरुष आप पर यह आरोप लगाते हैं कि आप पिछड़ी हैं। अपने आप पर यह आरोप मत लगने दीजिए। अपनी स्थिति को यूँ मजबूत बनाइए कि भविष्य में इसकी बजाय कि आपको 'अमुक व्यक्ति की पत्नी के रूप में पहचाना जाए आपके पति को 'अमुक महिला के पति' के तौर पर ललित किया जाए।
पति का लाड़-प्यार पाने वाली महिलाएं, जिनको वाहनों और परिधानों का अत्यधिक मोह होता है; जो स्त्रियोचित सौन्दर्य और फैशन के आकर्षण में फंसी रहती हैं तथा जो धनाढ्य और अभिमानी होती हैं; वे अपनी इसी निष्क्रिय अवस्था में सन्तुष्ट रहेंगी। वे दुनिया में कोई सुधार लाने में सहायक सिद्ध नहीं होंगी। महिलाओं को उपहास की वस्तु समझने तथा पुरुष के मन बहलाने की चीज मानने के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे खुद ही अभद्र ढंग से व्यवहार करती हैं। जो महिलाएं खुद को फैशनेबल और आधुनिक समझती हैं, वे मात्र बढ़िया परिधान तथा आभूषण पहनकर आकर्षक दिखने से ही स्वयं को सभ्य मानती हैं उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि पुरुषों के साथ समान दर्जे का सम्बन्ध ही वास्तविक सभ्य जीवन का आधार है।
'प्राथमिक शिक्षा' शब्द को सर्वप्रथम महिलाओं के लिए प्रयोग लाया जाना चाहिए। क्योंकि, 6-7 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों के लिए तो असल में वे ही प्राथमिक शिक्षक हैं।
हिन्दू-धर्म में ज्ञान की और धन की देवियों को पूजा जाता है। फिर ये देवियाँ महिलाओं को शिक्षा तथा सम्पत्ति का अधिकार प्रदान क्यों नहीं करती? महिलाओं को तर्कसंगत ज्ञान और वैश्विक मामलों से सम्बन्धित पर्याप्त शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें ऐसे साहित्य इतिहास या कहानियाँ से
दूर रखा जाना चाहिए, जो अन्धविश्वास और भय को जन्म देती हैं। महिलाओं
की पराधीनता के कई कारणों में से प्रमुख कारण यह है कि उन्हें सम्पत्ति का अधिकार नहीं है। (हालांकि अब कानून ने महिलाओं को बराबर की सम्पत्ति का अधिकार दे दिया है)
समाज में पुरुषों की प्रधानता ने उन्हें निरंकुश बनाया है। इसका एक प्रमाण यह है कि हमारी भाषाओं में पुरुष की शुचिता' के लिए कोई लक्षण निर्धारित नहीं किया गया है शुचिता के नाम पर पति द्वारा पत्नी के प्रति बरती जाने वाली क्रूरता को, जिसे पत्नी को हिंसा के रूप में भी सहन करना पड़ता है, समाप्त कर देना चाहिए।
अगर किसी महिला को सम्पत्ति का अधिकार और अपनी पसन्द से किसी को चुनने तथा प्रेम करने की स्वतंत्रता नहीं है, तो वह पुरुष की स्वार्थ-सेवा करने वाली एक रबड़ की पुतली से ज्यादा और क्या है? शुचिता' को केवल स्त्रियों पर लागू करने और पुरुष को इससे मुक्त रखने का हठ, पूर्वग्रह युक्त व्यक्तिगत स्वामित्व पर आधारित धारा है। स्त्री पुरुष की सम्पत्ति है; यही विचार पत्नी की वैध स्थिति निर्धारित करता है। यदि हमारा सम्पूर्ण साहित्य न्याय और अनुशासनबद्ध आचरण के निमित्त रचा गया है, तो महिलाओं पर लागू सभी नियम कानून पुरुषों पर भी समान रूप से लागू नहीं होने चाहिए?
संसार में यही दावा किया जाता रहा है कि स्वतंत्रता तथा साहस केवल 'पुरुष' के लक्षण हैं। अतः पुरुष समाज ने यह निश्चय कर लिया कि ये ही गुण 'पुरुष की श्रेष्ठता' को परिभाषित करते हैं । जब तक दुनिया में पुरुष की श्रेष्ठ कायम रहेगी, महिलाओं की पराधीनता जारी रहेगी। निश्चित तौर पर महिलाएँ तब तक स्वतंत्रता हासिल नहीं करेंगी, जब तक कि वे पुरुष-वर्चस्व की रीति को समाप्त नहीं कर देतीं। पुरुष को अपनी यौन-साथी चुनने की छूट और उसे जितनी मर्जी उतनी पत्नियाँ वरण करने की अनुमति स्वच्छंद सम्भोग का कारण बनती है। लोग महिलाओं की स्वास्थ्य-सुरक्षा और पारिवारिक सम्पत्ति के संरक्षण के उद्देश्य से गर्भ निरोध का समर्थन करते हैं। लेकिन, हम इसकी वकालत महिलाओं की मुक्ति के लिए करते हैं। चूंकि, पुरुषों पर ऐसा कोई भार नहीं होता। इसलिए, समाज में उनकी स्थिति इतनी दृढ़ है कि उन्हें यह घोषित करने में कोई आपत्ति नहीं होती कि वे महिलाओं के बिना रह सकते हैं। इसके साथ ही मातृत्व से सम्बन्धित समस्याएँ महिलाओं को दूसरों की सहायता लेने के लिए विवश कर देती हैं। जिससे पुरुष वर्चस्व को बढ़ावा मिलता है। इसलिए, महिलाओं की असली मुक्ति के लिए उन्हें सन्तानोत्पत्ति की कष्टप्राय बाध्यता से पूरी तरह मुक्त कर देना चाहिए।
पति-पत्नी नहीं, एक-दूसरे के साथी बनें
विवाहित दम्पतियों को एक-दूसरे के साथ मैत्री-भाव से व्यवहार करना चाहिए। किसी भी मामले में पुरुष को अपने पति होने का घमंड नहीं होना चाहिए। पत्नी को भी इस सोच के साथ व्यवहार करना चाहिए कि यह अपने पति की दासी या रसोइया नहीं है। विवाहित दम्पती को बच्चे पैदा करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। विवाह के कम-से-कम तीन साल बाद बच्चे पैदा हों, तो अच्छा रहेगा। विवाहितों को अपनी कमाई के अनुसार खर्च करना चाहिए। उन्हें उधार नहीं लेना चाहिए। भले ही आय कम हो; उन्हें किसी भी तरह थोड़ी-सी बचत करनी चाहिए। इसी को मैं जीवन का अनुशासन कहूँगा।
विवाहित लोगों को एक-दूसरे के प्रति सरोकार रखने वाला होना चाहिए। भले ही वे दूसरों के लिए ज्यादा कुछ न कर पाएँ; लेकिन उन्हें दूसरों का अहित करने से बचना चाहिए। कम बच्चे होने से ईमानदारी और आराम से जीवन व्यतीत किया जा सकता है। विवाहित लोगों को अपने जीवन को दुनिया की वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल ढालने के लिए हर तरह से प्रयास करना चाहिए। भविष्य में दुनिया कैसी होगी? इसे भूलकर उन्हें वही करना चाहिए, जो वर्तमान दुनिया में जीने के लिए आवश्यक है।
'पति' और 'पत्नी' जैसे शब्द अनुचित हैं। वे केवल एक-दूसरे के साथी और सहयोगी हैं; गुलाम नहीं। दोनों का दर्जा समान है। जिस देश या समाज में प्रेम को स्वतंत्र रूप से फलने-फूलने का अवसर मिलता है; वही देश ज्ञान, स्नेह, संस्कृति और करुणा से समृद्ध होता है। जहाँ प्रेम बलपूर्वक किया जाता है, वहाँ केवल क्रूरता और दासता बढ़ती है। जीवन
में एक-दूसरे की अपरिहार्यता को समझना एक उदात्त प्रेम की पहचान है। नैतिक आचरण की सीख देने वाली कोई भी किताब या धर्म-ग्रंथ यह नहीं सिखाता कि एक बाल वधू को वैवाहिक बन्धनों में बँधकर तथा पारिवारिक जीवन में उलझकर, पति के संरक्षण की बेड़ियों में कैद रहना चाहिए; जबकि अपनी उम्र के अनुसार वह इसके लिए तैयार नहीं है। नागरिकों और पुलिस, दोनों को अवैध विवाह से सम्बन्धित लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने
का अधिकार होना चाहिए। विवाह को केवल लैंगिक समानता तथा स्त्री-पुरुष के बीच समान व्यवहार के सिद्धान्त पर अनुरोध किया जाना चाहिए। अन्यथा यही बेहतर होगा कि महिला तथाकथित 'पवित्र वैवाहिक जीवन' से बाहर एकल जीवन जिएँ। स्त्री पुरुष की गुलाम बनकर क्यों रहे? विवाह पर किया जाने वाला खर्च लोगों की 10 या 15 दिनों की औसत आय से अधिक नहीं होना चाहिए। एक और बदलाव यह लाया जा सकता है कि विवाहोत्सव को कम दिनों में मनाया जाए।
मैं 'विवाह' या 'शादी' जैसे शब्दों से सहमत नहीं हूँ। मैं इसे केवल जीवन में साहचर्य के लिए एक अनुबन्ध मानता हूँ। इस तरह के अनुबन्ध में मात्र एक वचन; और यदि आवश्यकता हो, तो अनुरोध के पंजीकरण के एक प्रमाण की जरूरत है। अन्य रस्मों-रिवाजों की कहाँ आवश्यकता है? इस लिहाज से मानसिक श्रम, समय, पैसे, उत्साह और ऊर्जा की बर्बादी क्यों? समाज में कुछ लोगों की स्वीकृति पाने और अपनी प्रशंसा सुनने हेतु लोग दो या तीन दिनों के लिए विवाह में अतार्किक ढंग से अत्यधिक खर्च कर देते हैं; जिसके कारण वर-वधू या उनके परिवार लम्बे समय तक कर्ज में डूबे रहते हैं। खर्चीले विवाहों के कारण कुछ परिवार कंगाल हो जाते हैं।
यदि पुरुष और महिला रजिस्ट्रार कार्यालय में हस्ताक्षर करके यह घोषणा कर देते हैं कि वे एक-दूसरे के 'जीवनसाथी बन गए हैं; तो यह पर्याप्त है। मात्र एक हस्ताक्षर के आधार पर किए गए ऐसे विवाह में अधिक गरिमा लाभ और स्वतंत्रता होती है।
हमें विवाह के पारम्परिक रीति-रिवाजों का पालन करने की जरूरत नहीं है। समय और समाज के मिजाज तथा ज्ञान में हो रही वर्तमान वृद्धि के अनुसार ही रीति-रिवाज स्थापित किए जाने चाहिए। यदि हम सदा के लिए किसी विशेष काल के तौर-तरीकों का पालन करते रहें, तो स्पष्टत: हम ज्ञान के मामले में आगे नहीं बढ़े हैं।
आत्माभिमान विवाह परम्परागत रूप से चलती आ रही प्रथाओं पर प्रश्न उठाने और उन्हें चुनौती देने के लिए शुरू किए गए हैं। विवाह से केवल वर-वधू का ही सरोकार नहीं होता। यह राष्ट्र की प्रगति के साथ जुड़ा होता है।
-पेरियार ई वी रामासामी
संसार में यही दावा किया जाता रहा है कि स्वतंत्रता तथा साहस केवल 'पुरुष' के लक्षण हैं। अतः पुरुष समाज ने यह निश्चय कर लिया कि ये ही गुण 'पुरुष की श्रेष्ठता' को परिभाषित करते हैं । जब तक दुनिया में पुरुष की श्रेष्ठ कायम रहेगी, महिलाओं की पराधीनता जारी रहेगी। निश्चित तौर पर महिलाएँ तब तक स्वतंत्रता हासिल नहीं करेंगी, जब तक कि वे पुरुष-वर्चस्व की रीति को समाप्त नहीं कर देतीं। पुरुष को अपनी यौन-साथी चुनने की छूट और उसे जितनी मर्जी उतनी पत्नियाँ वरण करने की अनुमति स्वच्छंद सम्भोग का कारण बनती है। लोग महिलाओं की स्वास्थ्य-सुरक्षा और पारिवारिक सम्पत्ति के संरक्षण के उद्देश्य से गर्भ निरोध का समर्थन करते हैं। लेकिन, हम इसकी वकालत महिलाओं की मुक्ति के लिए करते हैं। चूंकि, पुरुषों पर ऐसा कोई भार नहीं होता। इसलिए, समाज में उनकी स्थिति इतनी दृढ़ है कि उन्हें यह घोषित करने में कोई आपत्ति नहीं होती कि वे महिलाओं के बिना रह सकते हैं। इसके साथ ही मातृत्व से सम्बन्धित समस्याएँ महिलाओं को दूसरों की सहायता लेने के लिए विवश कर देती हैं। जिससे पुरुष वर्चस्व को बढ़ावा मिलता है। इसलिए, महिलाओं की असली मुक्ति के लिए उन्हें सन्तानोत्पत्ति की कष्टप्राय बाध्यता से पूरी तरह मुक्त कर देना चाहिए।
पति-पत्नी नहीं, एक-दूसरे के साथी बनें
विवाहित दम्पतियों को एक-दूसरे के साथ मैत्री-भाव से व्यवहार करना चाहिए। किसी भी मामले में पुरुष को अपने पति होने का घमंड नहीं होना चाहिए। पत्नी को भी इस सोच के साथ व्यवहार करना चाहिए कि यह अपने पति की दासी या रसोइया नहीं है। विवाहित दम्पती को बच्चे पैदा करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। विवाह के कम-से-कम तीन साल बाद बच्चे पैदा हों, तो अच्छा रहेगा। विवाहितों को अपनी कमाई के अनुसार खर्च करना चाहिए। उन्हें उधार नहीं लेना चाहिए। भले ही आय कम हो; उन्हें किसी भी तरह थोड़ी-सी बचत करनी चाहिए। इसी को मैं जीवन का अनुशासन कहूँगा।
विवाहित लोगों को एक-दूसरे के प्रति सरोकार रखने वाला होना चाहिए। भले ही वे दूसरों के लिए ज्यादा कुछ न कर पाएँ; लेकिन उन्हें दूसरों का अहित करने से बचना चाहिए। कम बच्चे होने से ईमानदारी और आराम से जीवन व्यतीत किया जा सकता है। विवाहित लोगों को अपने जीवन को दुनिया की वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल ढालने के लिए हर तरह से प्रयास करना चाहिए। भविष्य में दुनिया कैसी होगी? इसे भूलकर उन्हें वही करना चाहिए, जो वर्तमान दुनिया में जीने के लिए आवश्यक है।
'पति' और 'पत्नी' जैसे शब्द अनुचित हैं। वे केवल एक-दूसरे के साथी और सहयोगी हैं; गुलाम नहीं। दोनों का दर्जा समान है। जिस देश या समाज में प्रेम को स्वतंत्र रूप से फलने-फूलने का अवसर मिलता है; वही देश ज्ञान, स्नेह, संस्कृति और करुणा से समृद्ध होता है। जहाँ प्रेम बलपूर्वक किया जाता है, वहाँ केवल क्रूरता और दासता बढ़ती है। जीवन
में एक-दूसरे की अपरिहार्यता को समझना एक उदात्त प्रेम की पहचान है। नैतिक आचरण की सीख देने वाली कोई भी किताब या धर्म-ग्रंथ यह नहीं सिखाता कि एक बाल वधू को वैवाहिक बन्धनों में बँधकर तथा पारिवारिक जीवन में उलझकर, पति के संरक्षण की बेड़ियों में कैद रहना चाहिए; जबकि अपनी उम्र के अनुसार वह इसके लिए तैयार नहीं है। नागरिकों और पुलिस, दोनों को अवैध विवाह से सम्बन्धित लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने
का अधिकार होना चाहिए। विवाह को केवल लैंगिक समानता तथा स्त्री-पुरुष के बीच समान व्यवहार के सिद्धान्त पर अनुरोध किया जाना चाहिए। अन्यथा यही बेहतर होगा कि महिला तथाकथित 'पवित्र वैवाहिक जीवन' से बाहर एकल जीवन जिएँ। स्त्री पुरुष की गुलाम बनकर क्यों रहे? विवाह पर किया जाने वाला खर्च लोगों की 10 या 15 दिनों की औसत आय से अधिक नहीं होना चाहिए। एक और बदलाव यह लाया जा सकता है कि विवाहोत्सव को कम दिनों में मनाया जाए।
मैं 'विवाह' या 'शादी' जैसे शब्दों से सहमत नहीं हूँ। मैं इसे केवल जीवन में साहचर्य के लिए एक अनुबन्ध मानता हूँ। इस तरह के अनुबन्ध में मात्र एक वचन; और यदि आवश्यकता हो, तो अनुरोध के पंजीकरण के एक प्रमाण की जरूरत है। अन्य रस्मों-रिवाजों की कहाँ आवश्यकता है? इस लिहाज से मानसिक श्रम, समय, पैसे, उत्साह और ऊर्जा की बर्बादी क्यों? समाज में कुछ लोगों की स्वीकृति पाने और अपनी प्रशंसा सुनने हेतु लोग दो या तीन दिनों के लिए विवाह में अतार्किक ढंग से अत्यधिक खर्च कर देते हैं; जिसके कारण वर-वधू या उनके परिवार लम्बे समय तक कर्ज में डूबे रहते हैं। खर्चीले विवाहों के कारण कुछ परिवार कंगाल हो जाते हैं।
यदि पुरुष और महिला रजिस्ट्रार कार्यालय में हस्ताक्षर करके यह घोषणा कर देते हैं कि वे एक-दूसरे के 'जीवनसाथी बन गए हैं; तो यह पर्याप्त है। मात्र एक हस्ताक्षर के आधार पर किए गए ऐसे विवाह में अधिक गरिमा लाभ और स्वतंत्रता होती है।
हमें विवाह के पारम्परिक रीति-रिवाजों का पालन करने की जरूरत नहीं है। समय और समाज के मिजाज तथा ज्ञान में हो रही वर्तमान वृद्धि के अनुसार ही रीति-रिवाज स्थापित किए जाने चाहिए। यदि हम सदा के लिए किसी विशेष काल के तौर-तरीकों का पालन करते रहें, तो स्पष्टत: हम ज्ञान के मामले में आगे नहीं बढ़े हैं।
आत्माभिमान विवाह परम्परागत रूप से चलती आ रही प्रथाओं पर प्रश्न उठाने और उन्हें चुनौती देने के लिए शुरू किए गए हैं। विवाह से केवल वर-वधू का ही सरोकार नहीं होता। यह राष्ट्र की प्रगति के साथ जुड़ा होता है।
-पेरियार ई वी रामासामी
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