20 January 2017

चुनाव और चुनौतियां.




चुनावों को भारत के लोकतंत्र का त्योहार कहा जाता है जिसको मतदाता अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को मत देकर उत्सव के रूप में मनाते हैं. भारत दुनियां का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। परंतु चुनावों को लेकर हमारा लोकतंत्र इतना मजबूत नहीं है जितनी इससे उम्मीद की जानी चाहिए.

आज भी हमारी संसद व राज्य की विधानसभाओं में अपराधी पृष्टभूमि के अनेक नेता चौकड़ी बिछाए बैठे हैं. ADR(Association For Democratic Reforms) की  रिपोर्ट के अनुसार 2014 की लोकसभा में 543 में से 185 (34 प्रतिशत) सासंदो पर आपराधिक मामलें दर्ज़ हैं. वहीं 112 (21प्रतिशत) सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामलें दर्ज हैं. गंभीर आपराधिक मामलें ग़ैर ज़मानती होने के साथ इसमें कम-से-कम पांच साल या उससे अधिक सजा का प्रावधान है.

आदर्श चुनाव आचार संहिता की नेताओं द्वारा खुल्लेआम धज्जियां उड़ाई जाती हैं, परंतु फिर भी आज तक किसी भी उम्मीदवार की उम्मीदवारी रद्द करने की हिम्मत चुनाव आयोग ने नहीं दिखाई है. वहीं ग़रीब मतदाताओं पर बाहुबलियों द्वारा दबाव डाल कर वोट डलवाने के भी मामले सामने आते रहते हैं.  

अगर आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के मतदाता अपनी मर्जी से वोट नहीं डाल सकते तो दुनियां का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश होने का कोई महत्व नहीं रह जाता. चुनाव आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद बाहुबली लोग अपने बल का दुरूपयोग करने से बाज नहीं आते हैं.

यहां तथाकथित नेता चुनाव प्रचार के नाम पर समाज में ज़हर घोलने का असामाजिक काम करते हैं परंतु चुनाव आयोग मात्र प्राथमिकी दर्ज करवाने तक सीमित रह जाता है. चुनाव आयोग की और से उन पर कोई ठोस कार्रवाई ना होने से ये तथाकथित नेता ध्रुवीकरण करने में कामयाब भी हो जाते हैं.

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में चुनाव सुधारों को देखते हुए जनप्रतिनिधि कानून 1952 के तहत चुनाव प्रचार के दौरान धर्म व जाति के आधार पर वोट मांगने वाले नेताओं के खिलाफ क़ानूनी कार्रवाई करने का आदेश दिया है परंतु इसके बावजूद भी नेता जाति, धर्म के आधार पर राजनीतिक गठजोड़ बनाते नज़र आ रहे हैं. 

वहीं मीडिया की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी रिपोर्टिंग में चुनावों का राजनीतिक विश्लेषण जाति व धर्म के आँकड़ों के आधार पर करने से बचे. 

चुनावों में चुनाव प्रचार खर्च को लेकर भी चुनाव आयोग के सामने अनेक चुनौतियां रहती हैं. हाल ही में चुनाव खर्चों संबन्धी सुझाव पेश किए जिनमें सरकारी खर्च पर चुनाव लड़ानें की बात कही गई परंतु इस सुझाव में भी काफी सारी खामियां निकाली जा चुकीं हैं. 

वहीं एक जागरूक मतदाता का भी यह दायित्व बनता है कि वह जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर वोट ना कर के उम्मीदवार की शिक्षा, विकास कार्य करने की क्षमता, जनता की मूलभूत अवश्यकताओं को पूरा करने का माद्दा रखनें वाले उम्मीदवार का चयन करें. 



18 January 2017

राजनीतिक पार्टियो में पारदर्शीता का अवसर !


देश के प्रधानमंत्री ने राजनीतिक पार्टियों को चंदे के रूप में मिलने वाले काले धन को और पार्टियों से जुड़े भ्रष्टाचार को खत्म करने की अपील कर राजनीतिक पार्टियो से ईमानदारी की बात कही है।

राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे को लेकर चुनान आयोग भी लम्बे असरे से अपनी चिंता जताता रहा हैं क्योकि किसी भी पार्टी को चंदे के रूप में 20 हजार से ज्यादा की राशि ही चैक या कैशलेस के रूप में स्विकार्य है, 20 हजार से कम की राशि को चैक से देने की कोई अनिवार्यता नहीं है इस रास्ते के जरिए ये तमाम पीर्टिया चंदे में आए पैसे को 20 हजार से कम दिखाती थी लेकिन अब 20 हजार की जगह 2 हजार से ज्यादा की राशि को चैक के जरिए दिए जाने की बात कही जा रही हैं। लेकिन यह नया तरीका भी  काले धन को चंदे के रूप में स्विकार कर पार्टियों के लिए एक रास्ता छोड़ रहा है भले ही कम राशि के रूप में हो।


एक ओर जब देश की अर्थव्यवस्था को केश लैस करनें की बात की जा रही है हालांकि देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुचनें में इसे कई दशक लग सकते हैं। तो क्यों न राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले एक ₹ के चंदे की राशि को भी कैश लैस भूगतान के जरिए लिया जाए ?

सबसे पहले भाजपा को इसकी शुरुआत करनी चाहिए क्योंकि भाजपा शासित मोदी की केंद्र सरकार ने ही देश को कैश लैस और वितीय रूप से डिजिटल करने का बीड़ा उठाया है। अगर मोदी साहब ऐसा करने का साहस करते है तो जाहिर है दूसरी पार्टियों पर भी जनता का दबाव होगा, कि वो भी चंदे में मिलने वाली राशि को  कैश में ना लेकर चैक, ऑनलाइन बैंकिग या मोबाईल वॅालेट के जरिए ही स्वीकार करें।

वही दूसरी ओर राजनीतिक पार्टियों को सूचना के अधिकार (RTI) के दायरे में लाने की बात लगातार चलती आ रही है। सूचना आयोग नें 2013 में सभी राजनीतिक पार्टियों को RTI के दायरे में लाने का फैसला किया था। लेकिन किसी भी पार्टी ने इसे लागू नहीं किया। अब यह मामला देश के सर्वोच्च न्याया़लय के अधीन चल रहा है। वहीं मोदी अगर पारदर्शिता की बात करते है तो सर्वोच्च न्याया़लय के फैसले से पहले ही उनको अपनी पार्टी को RTI के दायरे मे लाना चाहिए

लेकिन कहीं मोदी पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों को देखते हुए तो ़इस तरह की ब्यानबाजी नहीं कर रहे हों जिससे वो अपनी पार्टी को साफ-सुथरी होने का प्रमाण-पत्र अपनी रैलियों के दौरान अपने लच्छेदार भाषणों में देते नजर आए।
उनकें के लिए बेहतर होगा की वो अपनी पार्टी को मिलने वाले चंदे को कैशलेस करे और अपनी पार्टी को RTI कानून के दायरे में लेकर आए तब जनता में संदेश जाएगा की प्रधानमंती असल में राजनीतिक पार्टियों में पारदर्शिता  और ईमानदारी चाहते हैं। अगर वो ऐसा करते हैं तो इन पांच राज्यो में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी को परोक्ष रूप से फायदा हो सकता है और साथ ही कम-से-कम इस मामलेृ में तो उनकी  कथनी और करनी में अंतर खत्म हो ही जाएगा
- गौरव कुमार